Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
འགན་
आता है कि जहां जिस प्रकार अविसम्बाद है, वहां उस प्रकार प्रमाणता मानी जाती है, यह विश्वास करने योग्य है। सच बात कहने में हम हिचकिचाते नहीं हैं। " शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि"। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानोंको अपने विषयोंमें भी पूर्णरूपसे प्रमाणता प्राप्त नहीं है। विचारनेपर निर्णीत हो जाता है कि जिस झाममें जितनी पराधीनता होगी उतना ही वह मन्द होगा। चाक्षुष प्रत्यक्षको ही ले लीजिये । किसी वृक्षको एक कोश दूरसे देखा जाय, छोटा दीखेगा। जितना जितना वृक्षके निकट पहुंचते जायंगे उतना उतना बडा दीखता जायगा । दस गजके अन्तरालसे देखनेपर बडा दीखता है । बीचमें तारतम्यरूप दीखता है । वृक्षकी ठीक लम्बाई चौडाई कहांसे दीखती है इसका निर्णय करना कठिन है। यों तो सब अपने अपने प्रत्यक्षोंको ठीक बता रहे हैं। हां, वृक्षकी यथार्थ लम्बाई चौडाई किसी न किसी प्रत्यक्षसे दीखती अवश्य है । किन्तु हजारों प्रत्यक्षों से कौनसा भाग्यशाली प्रत्यक्षज्ञान उसको ठीक ठीक जाननेवाला है, इसकी परीक्षा दुःसाध्य है। इसी तरह दूरसे वृक्षका रूप काला दीखता है, निकटसे हरा दीखता है, मध्यस्थानोंसे हरे और कालेका तारतम्य रूपसे रूपका ज्ञान होता है । वृक्षका ठीक रूप किस स्थानसे दीखा है, इसका निर्णय कौन करे ! यदि ज्ञानमें विशेष अंश नहीं पडकर केवल काला या हरा रूप ही दीखगया होता तो हम इतनी चिन्ता न करते, किन्तु हम क्या करें, तुम उन ज्ञानोंमें विशेष अंशोंको ग्रहण कर बैठे हो । अतः विचार करना पडता है । जैसी ज्ञानमें विकल्पना कर लोगे हमें इसके सत्यपन या असत्यपनकी परीक्षा करनी ही पडेगी । एक शुक्लवस्त्रको घाममें, छायामें, दीपकके प्रकाशमें, बिजलीके प्रकाशमें, उजिरियामें देखनेपर अनेक प्रकारके शुक्लरूप दीखते हैं। भले ही बिजली आदि निमित्तसे वस्त्रके शुक्लरूपमें कुछ आक्रान्ति हो गयी हो, फिर भी इस बातका निर्णय करना शेष रह जाता है कि वस्त्रका ठीक रूप किस प्रकाशमें दीखा था। आंखे भी रूपके देखनेमें बडी गडबडी मचा देती हैं । एक मोटा कांच होता है । घडी बनानेवाले या चित्र दिखानेवाले पुरुष उस कांचके द्वारा हजार गुना लम्बा, चौडा, पदार्थ देख लेते हैं । एक बालको उस कांच द्वारा देखनेपर मोटी लेजके समान दीखता है। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रियका बहिरंग शरीर भी उस कांचके सदृश है । सन्मुख रखे हुये पदार्थोका चक्षुमें प्रतिबिम्ब पडता है। और यह एक लाख गुना बडा होकर या इससे कुछ न्यून अधिक प्रतिभास जाता है । सैकडों दर्पणों से कोई एक दर्पण शुद्ध होता होगा, जो कि पदार्थका ठीक प्रतिबिम्ब लेता है। अन्यथा किसी दर्पणमें लम्बा किसीमें चौडा किसीमें पीला किसीमें लाल मुख दीखता है। इसी प्रकार बालक, कुमार, युवा, वृद्ध, बीमार, निर्बल, सबल, घी खानेवाला, रूखा खानेवाला आदिकी आंखोंमें भी प्रतिबिम्ब पडनेका अवश्य अन्तर होगा। यदि ऐसा न होता तो उनको भिन्न भिन्न प्रकार ( नम्बरों ) के उपनेत्र ( चश्मा ) क्यों अनुकूल पडते हैं। मोतिया बिंद रोगवालेका चश्मा किसी नीरोग विद्यार्थीको उपयोगी नहीं होता है। अनेक जातिके पशु, पक्षी, या छोटी बड़ी आंखवाले जीव अथवा मक्खी, पतंग आदिकी आंखोंके