Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जब कि इस प्रकारको प्रतीतियां सम्पूर्ण मनुष्योंकी साक्षीसे प्रसिद्ध हो रही हैं, अतः वे प्रतीतियां ही मति और श्रुतज्ञानके द्वारा जाने गये स्व और अर्थरूप विषयमें सभी प्रकारोंसे प्रमाणपनको नष्ट कर देती हैं। हां, एकदेशसे प्रमाणपनको रक्षित रखती हैं । इस प्रकार उन प्रतीतियोंसे जितना अंश सम्बाद रूप है, उतने अंशमें बाधारहित होते हुये मति और श्रुत प्रमाण हैं। ऐसे ही अन्य बाधारहित ज्ञानोंकी प्रमाणता समझ लेना । सो यह प्रमाणपना जिस ढंगसे जितना प्रतिपन्न हो उतना वाधारहित ठीक समझना । लेखनी ( नेजाकी कलम ) की छाल रूपरकी सभी चिकनी और कडी होती है, किन्तु अक्षर लिखनेके लिये जितना चक्कूसे छिला हुआ स्वल्प अंश उपयोगी है । वह करण है, शेष अंश तो उसका सहायक मात्र है।
ननूपप्लुतविज्ञानं प्रमाणं किं न देशतः।
खप्नादाविति नानिष्टं तथैव प्रतिभासनात् ॥ ४२ ॥
यहां शंका है कि यदि थोडे थोडे अंशसे ही ज्ञानमें प्रमाणता आजाय तब तो स्वप्न, पीलिया रोग, चका चोंघ, आदि अवस्थाओंमें हुये झूठे ज्ञानोंको भी एकदेशसे प्रमाणपना क्यों न हो जाय ? पीलिया रोगीको शंखका ज्ञान तो ठीक है। रूपका ज्ञान ठीक नहीं है । संशय ज्ञानीको भी ऊंचाईका ज्ञान ठीक है । स्थाणु या पुरुषका विवेक नहीं है । फले हुये कांसोंमें जलका ज्ञान करनेवाला क्षेत्रके विस्तार और चमकको ठीक जान गया है। केवल जलको जानने में त्रुटि हो गई है । ऐसी दशामें इन ज्ञानोंको भी एकदेश प्रमाण कह देना चाहिये । इस प्रकार शंका होनेपर आचार्य कहते हैं, ठीक है । हमको कोई अनिष्ट नहीं है । तिस प्रकार ही प्रतिभास हो रहा है। हम क्या करें अर्थात्-स्वांशमें तो सभी सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञान सर्व प्रमाण हैं ही। विषय अंशोंमें भी कुछ कुछ प्रमाणता मान लो । वस्तुकी यथार्थपरीक्षा करनेमें डर किसका है ! शंखमें पीले शंखका ज्ञान होना, मेढकका ज्ञान होना, घोडेका ज्ञान होना ऐसे विपर्यय बानोंमें प्रमाणताकी न्यूनता, अधिकता, होनेपर ही अन्तर पड सकते हैं । अन्यथा नहीं । जैसे कि पांचवें गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरणका उदय तो सर्वथा नहीं है, किन्तु प्रत्याख्यानावरणके उदयकी अधिकता न्यूनतासे श्रावकके ग्यारह पद हो जाते हैं । घटी ( छोटी घडियां ) को घट जाननेवाले ज्ञानकी अपेक्षा घटीको घोडा जाननेवाले विपरीत ज्ञानमें प्रमाणताका अंश अति न्यून है । प्रवेशिकासे ऊपर विशारद श्रेणी है । प्रवेशिकाके उत्तीर्ण छात्रसे विशारदका अनुत्तीर्ण छात्र कुछ अधिक व्युत्पन्न है।
स्वप्नायुपप्लुतविज्ञानस्य कचिदविसंवादिनः प्रमाणण्यस्येष्टौ तब्यवहारः स्यादिति चेत् ।
यदि कोई यों कहे कि किसी अंशमें अविसम्वाद रखनेवाले स्वम आदिकमें हुये चलायमान ज्ञानोंको यदि प्रमाणपना जैनोंको इष्ट है, तब तो उन मिथ्यानानोंमें उस प्रमाणपनेका व्यवहार हो