Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
श्रुतज्ञान करते हैं । इसको लिखने के लिये बीस पत्र चाहिये, भले ही सुमेरु पर्वतका चित्र खींचना त्रिलोकसारसे विरुद्ध पडजाय, इसकी कोई अपेक्षा ( परवाह ) नहीं हैं। जैसा पहले देखा सुना है। उससे मिलता जुलता ज्ञान करलिया जाता है, फिर बिचारे स्वप्नको ही मिथ्याज्ञान होनेकी गाली क्यों सुनाई जाती है ? सत्यज्ञानोंमें भी तो कलियुगी पण्डितोंके समान पोल चल रही है । संक्षेप में यही कहना है कि मति और श्रुतज्ञान पूर्ण अंशोंमें प्रमाण नहीं हैं, एक देशसे प्रमाण हैं। हां, अवधि और मन:पर्यय अपने स्वार्थ नियत विषयोंमें पूर्णतासे प्रमाण हैं। क्योंकि इनकी परतंत्रता बहुत घट गयी . है तथा केवलज्ञान तो कथमपि पराधीन नहीं है। अतः ये सर्वागरूपसे प्रमाण बन रहे हैं।
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प्रतीत्यविरोधस्तूच्यते ।
जिस प्रकार जितने अंशों में ज्ञानका अविसम्बाद होय उस प्रकार उतने अंशोंमें प्रमाणता है । इस प्रकारकी प्रतीति के अविरोधको तो हम अग्रिमकारिकाओं द्वारा कहे देते हैं । मति आदि पांचोंज्ञानोंकी प्रमाणता उसीके अनुसार जितनी जिसके बांटमें आवे उतनी समझ लेना । अधिकके लिए हाथ पसारना अन्याय्य है ।
अनुपप्लुतदृष्टीनां चन्द्रादिपरिवेदनम् । तत्संख्यादिषु संवादि न प्रत्यासन्नतादिषु ॥ ४० ॥ तथा ग्रहोपरागादिमात्रे श्रुतमबाधितम् । नांगुलिद्वितयादौ तन्मानभेदेऽन्यथा स्थिते ॥ ४१ ॥
नहीं हो रही है दृष्टि जिनकी ऐसे पुरुषोंको चन्द्रमा, शुक्र, दूरवर्ती पर्वत आदिका परिज्ञान होना उनकी संख्या, स्थूलरचना, चमक आदि विषयोंमें तो सम्वाद रखनेवाला है। हां, निकटपना, लम्बाई, चौडाई ठीक ठीक रंग दूरकी नाप करने आदिमें सम्बादी नहीं है । यह मतिज्ञानकी त्रुटि है । तथा ज्योतिष शास्त्र के द्वारा सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहणका सामान्यरूपसे ज्ञान हो जाता है । उता श्रुतज्ञान बाधारहित है, किन्तु दो अंगुल तथा तीन अंगुल ग्रहण पडने में अथवा भिन्न भिन्न अनेक देशोंमें उसके परिणामका ठीक विधान करनेमें वह श्रुतज्ञान बाधारहित नहीं है । क्योंकि अनेक देश और ग्रामोंमें ग्रहणकी विशेषतायें दूसरे प्रकारोंसे स्थित हो रही हैं। अथवा 1. दूसरे प्रकारोंसे स्थित हो रही विशेष नापमें वह अन्ट सन्ट नापको जान रहा श्रुतज्ञान निर्बाध नहीं है । अतः मति और श्रुतका सम्पूर्ण शरीर प्रमाणरूप नहीं कहा जा सकता है । जिन जीवोंकी दृष्टि च्युत हो रही है, उनके मतिज्ञान या श्रुतज्ञान तो सम्वादरहित प्रसिद्ध ही हैं ।
एवं हि प्रतीतिः सकलजनसाक्षिका सर्वथा मतिश्रुतयोः स्वार्थे प्रमाणतां हंतीति तया तदेतत्प्रमाणमबाधम् ।