Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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. नाकांक्षानिवर्तनमविसंवादनं । किं तर्हि ? अर्थक्रिया स्थितिः । सा चाविमुक्तिर विचलनमर्थक्रियायां । न च तत्खमादौ दहनाद्यवभासस्थास्तीति केचित् । तेषां गीतादिशवज्ञानं चित्रादिरूपज्ञानं वा कथं प्रमाणं । तथाऽविमुक्तेरभावात् । तदनंतरं कस्यचित्साध्यस्य फलस्यानुभवनात् वत्रापि प्रतिपत्तुरभिप्रायनिवेदनात् साध्याविमुक्तिरिति चेत्, तर्हि निराकक्षितैव स्वार्थक्रियास्थितिः खमादौ कयं न स्यात् ।
आकाक्षाओंकी निवृत्ति होना सम्वाद नहीं है । तो क्या है ? इस प्रश्नके उत्तरमें हम बौद्ध कहते हैं कि अर्थक्रियाका स्थित रहना सम्वाद है । वह अर्थक्रियाका स्थित रहना तो विमुक्त नहीं होना है । यानी अर्थक्रिया करनेमें विचलित नहीं होना । वह अविचलन तो स्वप्न आदिमें हुये अग्नि आदिके ज्ञानोंके नहीं है । अर्थात्-स्वप्नमें देखी गयी अग्निसे शीतबाधाकी निवृत्ति नहीं होती है । जाडा लगनेफ्र स्वप्नमें अग्नि दीखजाती है। विशेष प्यास लगनेपर स्वप्नमें पानी ही पानी दीखता है। दरिद्रको स्वप्नमें रुपयोंका ढेर मिलगया प्रतीत हो जाता है । किन्तु उन अग्नि, जल आदिकोंसे शीतबाधानिवृत्ति, पिपासानिवृत्ति आदि क्रियायें नहीं हो पाती हैं। अतः सम्वादका लक्षण अर्थ क्रियास्थिति करनेपर हमारे प्रमाणका लक्षण अतिव्याप्त नहीं होगा । इस प्रकार कोई सौत्रान्तिक बौद्ध कह रहे हैं । उनके यहां संगीत आदि शद्वोंका ज्ञान अथवा चित्र (तसवीर ) विजुली, जलतरंगे
आदिका रूपज्ञान भला कैसे प्रमाण हो सकेगा ? क्योंकि तिस प्रकार अर्थक्रियाकी अविमुक्ति ( स्थिति ) होना तो वहां नहीं है। गीतको सुनकर या विजुलीको देखकर उनसे होनेवाली अर्थक्रिया अधिक देरतक तो नहीं ठहरती है, झट विलाय जाती है । यदि बौद्ध यों कहे कि उस संगीत आदिके ज्ञानोंके अव्यवहित उत्तरकालमें उनके द्वारा साधेगये किसी न किसी सुख सम्बित्ति, प्रतिकूल वेदन, आदि फलका अनुभव हो जाता है। इस कारण वहां भी ज्ञाता पुरुषको अभिप्रेत हो रहे अर्थका निवेदन हो जानेसे स्वल्प कालके लिये साध्यकी अविमुक्ति ( स्थिति ) है । इस प्रकार कहनेपर तो आकांक्षारहितपना ही ज्ञानकी अपनी अर्थक्रिया सिद्ध हुई। वह स्वप्न, मद, ( नशा ) आदि अवस्थाओंमें क्यों नहीं होवेगी ? अर्थात्-यों पदार्थीको जानकर थोडी देरतक अर्थक्रियाकी स्थिति होना स्वप्नमें भी हो रहा है। मद्यपायीको भूमिका हलन, चलन, दीख रहा है। तभी उसकी गति चलन, पतन, स्खलन युक्त हो रही है । स्वप्नमें भयंकर पदार्थको देखनेपर कुछ देरतक हृदयमें धडकन होती रहती है। निर्बल युवा पुरुष स्त्रप्नमें इष्ट पदार्थका समागम कर वास्तविक अर्थक्रियाओंको कर बैठते हैं । अतः आकांक्षारहितपनको ही अविसम्बाद हो जानेसे बौद्धोंके यहां प्रमाणके सामान्यलक्षणमें अतिव्याप्ति दोष तदवस्थ रहा।
प्रबोधावस्थायां प्रतिपत्तुरभिपायचलनादिति चेत्, किमिदं तश्चलनं नाम ? धिङ् मिथ्या प्रतर्कितं मया इति प्रत्ययोपजननमिति चेत्, तत्स्वप्नादावप्यस्ति । न हि खमोप