Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
परिच्छेदनापरिच्छेदनस्वभावयोरन्यतरस्या परमार्थतायामपीदमेव दूषणमुन्नेयमिति । परमार्थतस्तदुभयस्वभावविरुद्धमेकत्र प्रमाणेतरत्वयोरविरोधं साधयति । किं च ।
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अद्वैतवादी ज्ञान द्वारा अकेले ज्ञानका ही ज्ञान होना इष्ट करते हैं । अन्य विषयोंका नहीं और नैयायिक ज्ञानसे न्यारे प्रकृत विषयोंका ही जानना मानते हैं । स्वका और अन्य अप्रकृत विषयोंका नहीं । तथा जैन ज्ञानद्वारा स्व और ज्ञेय अर्थकी ज्ञप्ति होना अभीष्ट करते हैं । अज्ञेय 1 विषयोंको नहीं । बात यह है कि सम्पूर्ण प्रवादियों के यहां माना गया जो ही ज्ञान अपने विषय या केवल अपने स्वरूप अथवा दोनोंका जाननेवाला है, वही ज्ञान अन्य विषयोंका ज्ञायक नहीं है । इस प्रकार एक ज्ञानमें ज्ञायकत्व और अज्ञायकत्व ये विरुद्ध आकार ठहर जाते हैं । अन्यथा यानी जैसे ज्ञान अन्य विषयोंका वेदक नहीं है, उसी प्रकार स्व या विषय अथवा उभयका भी वेदक न होता तो सभी ज्ञान निर्विषय हो जाते । कोई भी ज्ञान किसी भी विषयको नहीं जान सकता है । क्योंकि अन्य विषयोंके समान अपने विषयकी भी ज्ञप्ति नहीं होगी तथा स्व और वैद्यको जानने के समान यदि अन्य उदासीन अज्ञेय विषयोंका वेदक ज्ञान होजाता तो सभी ज्ञानोंको सर्व पदार्थोका विषय करलेनापन दुर्निवार हो जाता । क्योंकि अपने विषय के समान अन्य सर्व विषयोंका भी निर्णय हो जावेगा । प्रत्येक ज्ञानको सर्वज्ञता बन बैठेगी। कोई निवारण नहीं कर सकता है । यदि स्व और अन्य विषयका परिच्छेद करना और स्व या अन्य अथवा उभय विषयोंका परिच्छेद नहीं करना, इन दोनों स्वभावोंमेंसे, किसी एक को ही वास्तविक स्वभाव माना जायगा और शेषको वस्तुभूत धर्म न माना जायगा तो भी ये ही दूषण न्यारे न्यारे लागू हो जायेंगे, इस बातको उपरिष्ठात् समझलेना चाहिये । इस प्रकार परमार्थरूपसे वे वेदकत्व और अवेदकत्व दोनों विरुद्ध सरीखे होकर एक ज्ञानमें पाये जा रहे, स्वभाव (कर्त्ता ) एक ज्ञानमें प्रमाणपन और अप्रमाणपनके अविरोधकी सिद्धिको करा देते हैं । तथा दूसरी बात यह भी है, सो सुनिये ।
स्वव्यापारसमासक्तोन्यव्यापारनिरुत्सुकः ।
सर्वो भावः स्वयं वक्ति स्याद्वादन्यायनिष्ठताम् ॥ ५१ ॥
जब कि सम्पूर्णपदार्थ अपने अपने योग्य व्यापार करनेमें भले प्रकार चारों ओर से लवलीन हो रहे हैं, और अन्य पदार्थके करने योग्य व्यापार में उत्सुक नहीं हैं, ऐसी दशा में वे सभी स्याद्वादनीतिके अनुसार प्रतिष्ठित रहनेपनको स्वयं कह रहे हैं, तो हम व्यर्थ परिश्रम या चिन्ता क्य करें । अर्थात् - अपनी अर्थक्रियाको करना और अन्यकी अर्थक्रियाको न करना, ये विरुद्ध सरीखे दीखते हुए आकार सम्पूर्ण पदार्थों में ठहर रहे हैं । यही स्याद्वाद की सर्वत्र छाप है ।
सर्वोग्निसुखादिभावः स्वामर्थक्रियां कुर्वन् तदैवान्यामकुर्वन्ननेकांतं वक्तीति किं नश्चितया । स एव च प्रमाणेतरभावाविरोधमेकत्र व्यवस्थापयिष्यतीति सूक्तं “ यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता " इति ।
यथा