Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अग्नि पदार्थ अपने दाहकत्व, पाक, शोषण, आदि कार्योको कर रहा है। किन्तु जलके द्वारा साधने योग्य सींचना, स्नान, पान, अवगाहन, आदि करानेरूप कार्योको अग्नि नहीं कर रही है । इसी प्रकार सुख, गुण अपने आल्हादकत्व, रोमांच कराना, निश्चिन्त करना, शरीरको मोटा करना आदि कार्योको करता है । दुःखसे साध्य चिन्ता, दुर्बलता, रक्तशोषण आदि कार्योको सुख नहीं साधपाता है । इसी प्रकार अग्नि, जल, घट आदि बहिरंग पदार्थ और सुख, ज्ञान, आत्मा, आदि अन्तरंग पदार्थ सभी अपनी अपनी अर्थक्रियाओंको जिस समय कर रहे हैं, उस ही समय अन्य अर्थक्रियाओंको नहीं कर रहे हैं । इस अपनी अर्थक्रियाका करना और अन्यकी अर्थक्रियाका नहीं करना इस प्रकार अनेकान्तको सभी पदार्थ जब कह रहे हैं, तो फिर हमको व्यर्थ चिन्ता करनेसे क्या करना है ? वह अर्थक्रियाका करनापन और न करनापन ही प्रमाणपन
और अप्रमाणपनके अविरोधकी एक ज्ञानमें व्यवस्था करा देवेगा । इस प्रकार उन्तालीसवीं वार्तिकके भाष्यमें यह बहुत अच्छा कहा था कि जिस प्रकार जिस ज्ञानमें जितना अविसम्वाद है । उस प्रकार उस ज्ञानमें उतना प्रमाणपना है । और शेष अंशमें अप्रमाणपना है।
चन्द्रे चन्द्रत्वविज्ञानमन्यत्संख्याप्रवेदनम् । प्रत्यासन्नत्वविच्चान्यत्वेकाद्याकारविन चेत् ॥ ५२ ॥ हतं मेचकविज्ञानं तथा सर्वज्ञता कुतः। . प्रसिध्ोदीश्वरस्येति नानाकारेकवित्स्थितिः ॥ ५३॥
यहां यदि कोई यों कहे कि आंखके पलकमें थोडीसी अङ्गुली गढाकर देखनेसे एक चन्द्रमामें हुये दो चन्द्रमाके एक ही ज्ञानको हम प्रमाणपना और अप्रमाणपना नहीं मानते हैं । किन्तु चन्द्रमामें चन्द्रपनेका ज्ञान न्यारा है, जो कि प्रमाण है । और उसकी संख्याको जाननेवाला ज्ञान भिन्न है, जो कि अप्रमाण है। तथा चन्द्रमाके निकटवर्तीपनका वेदन अन्य है । एक दो आदि आकारोंको जाननेवाली परिच्छित्ति पृथक् है । अतः एक एक आकारवाले ज्ञान न्यारे न्यारे हैं । एक ज्ञानमें अनेक आकार नहीं हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि यों माननेपर आप बौद्धोंका माना हुआ चित्रज्ञान नष्ट हुआ जाता है । एक ज्ञानमें अनेक नील, पीत आकारोंका प्रतिमासजाना ही तो चित्रज्ञान है । नैयायिकोंका समूहालम्बनज्ञान भी मर जायगा। अतः " प्रत्यर्थ ज्ञानाभिनिवेशः " प्रत्येक अर्थका एक एक न्यारा ज्ञान हो रहा है । अनेकोंको जाननेवाले अनेक शान हैं, यह आग्रह करना अच्छा नहीं है । तथा न्यारे न्यारे आकारवाले भिन्न भिन ज्ञानोंको माननेवाले वादीके यहां भला सर्वज्ञपना ईश्वरके कैसे प्रसिद्ध होगा ? एक ज्ञानसे अनेक पदार्थोका युगपत् प्रत्यक्ष कर लेना ही सर्वज्ञता है । इस प्रकार अनेक आकारवाले एक ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है।
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