Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
मकार ज्ञानको स्याद्वादी अभी करते हैं । इस प्रकार ज्ञान ही प्रमाण है। यह बात सिद्ध हुई ज्ञान प्राप्ति और अतिपरिहार कराने में समर्थ हो सकता है, जो कि प्रमाणका मुख्य कर्तव्य है ।
मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः ।
यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ॥ ३८ ॥
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इस सूत्रमें सम्यक्का अधिकार चला आरहा है, इस कारण संशय आदि मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं हैं । जिस प्रकार जहां पर अविसम्वाद है वहां उस प्रकार प्रमाणपना व्यवस्थित है । जैसे कि मिथ्याज्ञानको स्त्रांशके जाननेमें प्रमाणान्तरोंकी प्रवृत्तिरूप सम्वाद है, किन्तु विषयको जाननेमें विसम्वाद है तथा दूरसे वृक्षका ज्ञान करनेमें सामान्यवृक्षपनेका अविसम्बाद है और विशेषवृक्षपन, रंग, ऊंचाई, शाखाओंका अन्तराल आदिके जाननेमें प्रमाणान्तरोंसे बाधा प्राप्त हो जाना रूप विसम्वाद है, अतः किसी किसी समीचीन ज्ञानमें भी पूर्णरूपसे प्रमाणता नहीं है । यदि हम सामान्य वृक्षको ही जानकर चुप हो जाते तो वृक्षज्ञानको सर्वाग प्रमाण कह सकते थे । किन्तु वृक्षको जानते समय उसके काले पत्ते, सघनता, छोटापन, धुंधलापन भी तो मन्दरूपसे जान लिये गये हैं। भले ही हम शद्वोंसे न कहें, आत्माके पास बहुत बढिया कृतज्ञ सेवक एक ज्ञान है जो कि एक कार्यका कारण अपनेको बखानता है, किन्तु विना कहे दस कार्योंको साधदेता है । अतः जितने अंशमें सम्वाद है उतने अंशसे सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञानमें प्रमाणपना व्यवस्थित है । शेष अंशोंसे अप्रमाणपन है, सम्यग्ज्ञान कहाता होय और भले ही वह मिथ्याज्ञान शब्दसे कहा गया होय ।
चाहे
यदि सम्यगेव ज्ञानं प्रमाणं तदा चंद्रद्रयादिवेदनं वावल्यादौ प्रमाणं कथमुक्तमिति न चोयं, तत्र तस्याविसंवादात् सम्यगेतदिति स्वयमिष्टेः । कथमियमिष्टिरविरुद्धेति चेत्, सिद्धांताविरोधात्तथा प्रतीतेश्च ।
कोई जैनोंके ऊपर अभियोग लगाता है कि समीचीन ज्ञानको ही यदि जैन विद्वान् प्रमाण मानेंगे तो बावडी, कूप, कटोरा, आदिमें प्रतिविम्बके वश हुये दो चन्द्रमा या दो, तीन, दीपक आदिका ज्ञान मला प्रमाण कैसे कह दिया गया है ? यह समीचीन ज्ञान तो नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका आक्षेप नहीं करना । क्योंकि जैनोंके यहां प्रतिबिम्ब पदार्थ पौगलिक वस्तुभूत माना गया है । नैयायिकके समान हम छायाको अवस्तु नहीं मानते हैं और मीमांसकोंके समान हम चक्षुकी किरणोंका चमकीले पदार्थसे टक्कर खाकर लौटके उसी मुख्य वस्तुके देखने को भी हम छायाज्ञान नहीं कहते हैं । किन्तु दो या तीन जलपात्रों में न्यारे न्यारे पडे हुये वे प्रतिबिम्ब जलके स्वच्छतागुणकी विभाव पर्याय हैं, वे जलस्वरूप हैं । अतः आकाशमें ऊपर देखनेपर एक चन्द्रमाका ज्ञान समीचीन है, वहां दो चन्द्रमाका ज्ञान होना मिध्या है, किन्तु दो दर्पणोंमें या जल भरे कटोरों में अनेक चन्द्रबिम्बका ज्ञान होना समीचीन है। क्योंकि वहां उस ज्ञानका अविसम्बाद है और अन्य
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