Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थीचन्तामाणः
कथं वा प्रमातुरेवं साधकतमत्वं न स्यात् । न हि तस्य भावाभावयोः प्रमितेर्भावाभाववत्त्वं नास्ति ? साधारणस्यात्मनो नास्त्येवेति चेत् संयोगादेरिंद्रियस्य च साधारणस्य सा किमस्ति । तस्यासाधरणस्यास्त्येवेति चेत्, आत्मनोप्यसाधारणस्यास्तु ।
दूसरी बात यह है कि करणके भाव अभाव होनेपर कार्यके भाव अभाव हो जानेसे ही यदि करणपना व्यवस्थित हो जाय तो इस प्रकार प्रमाता आत्माको साधकतमपना क्यों नहीं हो जावेगा । देखिये ! स्वतंत्रकर्ता होनेसे आत्मास्वरूप कारणके साथ भी स्वार्थप्रमितिका अन्वय व्यतिरेक बन जाता है । उस आत्मा स्वरूप कारणके होनेपर-प्रमितिका भाव, उस आत्माके अभाव होनेपर प्रमितीका अभावसहितपना नहीं होय सो नहीं समझना । किन्तु आत्माके भाव अभाव होनेपर प्रमितिका भाव अभावसहितपना है हो । यदि तुम यों कहो कि साधारणरूपसे आत्माके भाव अभाव होनेपर प्रमितिका भाव अभाव नहीं है। अर्थात्-चाहे जिस कीट, पतंग, आदिकी आत्माके साथ परमाणु, व्याकरण, न्याय, आदिके ज्ञानका अन्वय व्यतिरेक तो नहीं बनता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन भी कटाक्ष करेंगे कि चाहे जिस संयोग समवाय, आदि सन्निकर्ष और कोई भी इंद्रिय इन साधारण कारणोंका क्या ज्ञानके साथ वह भाव अभावरूप अन्वय-व्यतिरेक भाव है ? तुम ही बताओ । यदि तुम यह कहो कि उन कोई कोई विशिष्ट सन्निकर्ष और असाधारण इन्द्रियों का अर्थप्रमितिके साथ भाव अभावपना है ही, तब तो हम जैन भी कहेंगे कि कोई कोई विशिष्ट असाधारण आत्माके साथ भी प्रमितिका भाव अभावपना है ही, तो पुनः आत्मा भी प्रमितिका करण वैसे ही क्यों नहीं हो जावे ? जैसे कि वैशेषिकोंने सन्निकर्षको और मीमांसकोंने इन्द्रियको करण माना है।
प्रमातुः किमसाधारणत्वमिति चेत्,सन्निकर्षादेः किम् ? विशिष्टममितिहेतुत्वमेवेति चेत्, प्रमातुरपि तदेव । तस्य सततावस्थायित्वात् सर्वप्रमितिसाधारणकारणत्वसिद्धेर्न संभवतीति चेत्, तर्हि कालांतरस्थायित्वात्संयोगादेरिद्रियस्य च तत्साधारणकारणत्वं कथं न सिध्येत् ? तदसंभवनिमित्तं । यदा प्रमित्युत्पत्ती व्याप्रियते तदैव सभिकर्षादि तत्कारणं नान्यदा इत्यसाधारणमिति चेत्, तर्हि यदात्मा तत्र व्याप्रियते तदैव तत्कारणं नान्यदा इत्यसाधरणो हेतुरस्तु । तथा सति तस्या नित्यत्वापत्तिरिति चेत् नो दोषोयं, कथंचित्तस्या नित्यत्वसिद्धेः सभिकर्षादिवत् । सर्वथा कस्यचिनित्यत्वेऽर्थक्रियाविरोधादित्युक्तमायं ।
प्रमाता आत्माके असाधारणपना क्या है ? इस प्रकार पूंछनेपर तो हम भी प्रश्न करते हैं कि सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति, आदिके भी असाधारणपना क्या है ? बताओ । तिसपर यदि तुम वैशेषिक या मीमांसक यह उत्तर कहो कि प्रमितिका विशेषोंसे सहित हुआ हेतुपना ही सन्निकर्ष आदिकी असाधारणता है, तब तो प्रमिति कर्ता आत्माका भी असाधारणपना वही यानी प्रमितिका विशिष्ट हेतुपना ही हो जाओ। इसपर यदि वैशेषिक या मीमांसक यदि यों कहें कि वह नित्य आत्मा तो