Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
इच्छा श्रद्धानमित्येके तदयुक्तममोहिनः ।
श्रद्धानविरहासक्तानचारित्रहानितः ॥ १० ॥ - एक प्रकारकी भली इच्छाको श्रद्धान कहते हैं । इस प्रकार कोई एक कह रहे हैं, वह उनका — कहना तो युक्तियोंसे रहित है । क्यों कि यदि श्रद्धानका अर्थ इछा करना होगा तो मोहरहित साधु
ओंके श्रध्दानसे रहितपनेका प्रसङ्ग होगा । इच्छा तो मोहकी पर्याय है । जिन वीतरागोंके मोहका उदय नहीं है, उनके इच्छारूप श्रध्दानके भी नहीं होनेका प्रसङ्ग होता है । जब सम्यग्दर्शन ही नहीं रहा तो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी भी हानि हो जावेगी । तथा च रत्नत्रयके विना उनकी मोक्ष भी कैसे होगी ? वे ऐसी दशामें इच्छावाले मोही जीवोंसे अच्छे मोक्ष—मार्गमें लगे हुए नहीं कहे जायेंगे ।
न ह्यमोहानामिच्छास्ति तस्या मोहकार्यत्वादन्यथा मुक्तात्मनामपि तद्भावप्रसङ्गात् ।
जिन महाशयोंके मोह नहीं है उनके इच्छा भी नहीं है। क्योंकि वह इ'छा होना मोहका कार्य है। अन्यथा यानी इच्छाको मोहका कार्य न मानकर आत्माका स्वभाव मानोगे तो मुक्त आत्माओंके भी उस इच्छाके सद्भावका प्रसंग होगा ।
हेयोपादेययोर्जिहासोपादित्सा च विशिष्टा श्रद्धा वीतमोहस्यापि सम्भवति तस्या मन कार्यत्वादिति चेन्न, तस्या मनस्कार्यत्वे सर्वमनस्विनां तद्भावानुषङ्गात् ।
त्याग करने योग्य पदार्थोके छोडनेकी इच्छा ऐसी विशिष्ट इच्छाको हम श्रद्धान कहते हैं। वह श्रद्धा तो मोहरहित साधुओंके भी सम्भवती है। क्योंकि वह विशिष्ट प्रकारकी इच्छा मोहका कार्य नहीं है, किंतु वह तो विचार करनेवाले मनका कार्य है । यदि आप कोई ऐसा कहेंगे, सो तो ठीक नहीं है । क्योंकि यदि उस इच्छाको मनका कार्य माना जावेगा तो साधुओंके समान मनवाले सभी जीवोंके छोडने योग्य व्यभिचार, असत्य, अभक्ष्यभक्षण, मद्य, मांस आदिके छोडनेकी वह इच्छा होनी चाहिये और ग्रहण करने योग्य ब्रह्मचर्य, सत्य, शुद्ध भोजन, संयम आदिके ग्रहण करनेकी इच्छाके सद्भावका प्रसंग होगा, किंतु ऐसा देखा नहीं जाता है । कोई विरल, उदासीन विचारशाली भव्यजीव ही हेय उपादेयमें हान, उपादानकी इच्छा रखते हैं। शेष जीवोंकी तो अनर्गल प्रवृत्ति हो रही है। . ज्ञानापेक्षं मनः कारणमिच्छाया इति चेन्न, केषांचिन्मिथ्याज्ञानभावेप्युदासीनदशायां हेयेषूपादित्सानवलोकनात् उपादेयेषु च जिहासाननुभावात्, परेषां सम्यग्ज्ञानसद्भावेऽपि हेयोपादेयजिहासोपादित्साविरहात् ।