Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भिचारस्य तदवस्थानात् । न हि परोपदेशनिरपेक्षं निसर्गजं प्रशस्तालोचनं न सम्भवति परोपदेशापेक्षं वाधिगमजं प्रशस्तालोचनवदिति युक्तं सम्यग्दर्शनस्य पृथग्लक्षणवचनं शब्दार्थव्यभिचारात्, तदव्यभिचारे तद्वन्नान्यस्य मत्यादेर्ज्ञान चारित्रवदेव ।
चोको उठानेवाला कहरहा है कि इस प्रकार तो सम्यग्दर्शनका लक्षण कहनेवाला सूत्र भी व्यर्थ हो जायेगा । क्योंकि सम्यक्त्वके निसर्ग और अधिगमरूप दो विशेष कारणोंको बतलानेवाले अमसूत्र से ही या द्वितीय अध्यायमें कहे गये सम्यक्त्वके उपशम, क्षयोपशम आदि भेद तथा छठे अध्याय में वैमानिक देवोंकी आयुष्यबन्धके कारण आदि प्रकरणोंसे सम्यग्दर्शन शद्वके उस समीचीन प्रकारसे देखनारूप अर्थका व्यभिचार दूर हो जाता है । अत: ज्ञान और चारित्रके लक्षणसूत्र जैसे नहीं कहे हैं वैसे ही सम्यग्दर्शनका लक्षणसूत्र भी नहीं कहना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि शंकाकारका यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि सम्यग्दर्शनके निसर्ग और अधिगमरूप विशेष कारणोंके कहदेनेसे सम्यग्दर्शनका लक्षण नहीं हो सकता था। क्योंकि भले प्रकार देखने में भी परोपदेशसे होनापन और परोपदेशके विना होनापन विद्यमान है । अतः शब्दके अर्थका व्यभिचार दोष होना वैसा का वैसा ही अवस्थित रहेगा । क्या दूसरोंके उपदेशकी नहीं अपेक्षा करके स्वभावसे ही उत्पन्न हुआ बढिया चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं संभव है ? अर्थात् अवश्य होता है । जैसे कि दूसरोंके उपदेशसे पर्वत, नदी, प्रासाद आदिको प्रशंसनीयपनेसे लोग देखते हैं, अनेक प्रेमी पुरुष दूसरोंके कहने से मनोहर भव्य दृश्योंको भले प्रकार देखा करते हैं, ऐसे ही परोपदेशकी अपेक्षा करके अधिगमजन्य चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है । तथा विना उपदेशके हुए चाक्षुष प्रत्यक्षमें भी उदयाभावी क्षय, सदवस्थारूप उपशम एवं क्षयोपशमरूप परिणति देखी जाती है । पूज्य तीर्थोका, श्री अर्हन्तदेव के प्रतिबिंबा और मुनि महाराजोंका चाक्षुषप्रत्यक्ष ( समीचीन देखना ) भी देवायुके आस्रवका कारण है । सम्यग्दर्शनके समान चाक्षुषप्रत्यक्षका स्वामी भी वही आत्मा है । बढिया आलोचन माने गये. चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शनमें भी उक्त कथन समानरूपसे लागू हो जाता है । अतः सम्यक्त्वका लक्षण किये विना कारण, स्वामी, आदिके प्रकरणोंसे ही अभीष्ट अर्थ नहीं निकलता है । इस कारण वाचक शद्वके वाच्य अर्थका व्यभिचार हो जानेसे सम्यग्दर्शनका लक्षण पृथक् रूपसे कहना युक्त है । और जहां उस अपने वाच्य अर्थके साथ व्यभिचार नहीं होता हैं वहां उस सम्यग्दर्शनके लक्षण निरूपणके सदृश ( व्यतिरेक दृष्टांत ) अन्य मति, अवधि आदिका लक्षण सूत्र नहीं कहा जाता है । जैसे कि ज्ञान और चारित्रके न्यारे लक्षणसूत्र कहे ही नहीं गये हैं ( अन्वय दृष्टांत ) । जिन अर्थोके संज्ञा वाचक शब्द ही अपने अर्थको बढिया प्रकारसे प्रतिपादन करते हैं, उसके लिये लक्षण बनाना व्यर्थ है । " अर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत् ” यदि उदररोगको दूर करनेके लिये अकौआमेंसे ही पुष्परस प्राप्त हो जावे तो पर्वतपर जानेका कष्ट क्यों उठाया जावे ? ।