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५६२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ का ५ * जन्यरूपकारणतानिमर्गः *
दिनोऽपि तुल्यत्वात् । जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति च रूपत्वेनैवाऽसमवायिकारणत्वं न तु नीलादी नीलादेः, प्रयोजनाभावात् । न च प्राकृपक्षोक्तदोषानतिवृत्तिः, सम्बन्धाननुगमस्या - दोषत्वात्, सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्त प्रतियोगितावच्छेदकताकात्यन्ताभावघटि* जयलता है इतरत्वप्रवेशाप्रवेशविनिगमनाविरहस्त्वावयो: समान एवेति यः परिहारस्तत्र त्वया दर्शयिष्यते स एव मयापीत्यत्र मौनमेवावयोः श्रेयस्करमिति भावः ।
रूपत्वस्य कार्याकार्यसाधारणतया कार्यतावच्छेदकत्वायोगादाह-जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रतीति । सामानाधिकरण्येन जन्यत्व विशिष्टरूपत्वस्योपाधितया गुरुत्वेन न कार्यतावच्छेदकत्वं सम्भवतीति प्रागुक्तदिशा जन्यरूपमानवृत्तिवैजात्यावच्छित्रं प्रतीत्यर्थः कार्यः । रूपत्वेनैवेति । एवकारेण नीलत्वादेर्व्यवच्छेदः कृतः । समवायेन जन्यरूपमात्रवृत्तिजातिविशेषावच्छिन्नं प्रति स्वरामवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपत्वावच्छिन्नस्याऽसमवायिकारणत्वमित्यर्थः । कण्ठत एवकारफलमाह् न तु नीलादी समवायेन नीलत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलादेः असमवायिकारणत्वमित्यत्रापि घण्टालोलान्यायेनानुषज्यते । अत्र हेतुमाह प्रयोजनाभावादिति । नीलादी नीलंतररुगादेः प्रतिबन्धकतयैवोपपत्ती नीलादिकं प्रति नीलादेरसमवायिकारणत्वकल्पने प्रयोजनविरहादित्यर्थः ।
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नन्वेवं सत्यवच्छेदकतासम्बन्धेन नीलादी समवायेन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकल्ये समवायेन नीलादी च स्वसमवायिसम वेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वमित्येवं प्रतिबन्धकतावच्छेदकादिसम्बन्धभेदे कारणतावच्छेदकसम्बन्धेऽप्यननुगमप्रसङ्ग इत्याशङ्कां निराकर्तुमाह् न च प्राकृपक्षांतदोषानतिवृत्तिरिति । यथा प्राकृ प्रतिवन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीरे इतरत्वप्रवेशा प्रवेशाविनिगमे उभयग्रहणप्राप्ती प्रतिबन्धका भावनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धाननुगमदोषप्रसङ्गः तथा प्रकृते नानाप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धप्राप्त प्रतिबन्धका भावनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धाननुगमप्रसक्तिरित्याशयः शङ्ककाकर्तुः । तत्र समाधने
सम्बन्धानानुगमस्य = कारणतावच्छेदकादिसंसर्गनानात्वस्य अदोपत्वात् कारणतावच्छेदकधर्मादिकुक्षी तदप्रवेशात् । 'सम्बन्धाननुगत कथं कारणवाद्यभेदः ?' इत्याशङ्कामपाकर्तुमाह-सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्तप्रतियागितावच्छेइकताकात्यन्ताभावघटितायाः = स्वाश्रयत्व - स्वाश्रयसमवेतत्वादिसम्बन्धपयांप्तायाः प्रतियोगितावच्छेदकताया निरूपकेणाप्रतिबन्धक मानना या स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से १ इस विषय में कोई निर्णायक युक्ति नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति नीलेतरादि को नीलेतरत्वादिरूप से स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रतिबन्धक माननेवाले बादी के मत में भी यह दोष समान ही हैं, क्योंकि 'नीलेतरादि रूप स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलादि का प्रतिबन्धक है। या स्वासमवायिकारणसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से ? इस समस्या का कोई प्रत्युत्तर इस मत में भी नहीं है ।
[D] जन्यरूप के प्रति रूपसामान्य कारण [[]
जन्य इति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि समवाय सम्बन्ध से जन्यरूपत्वावच्छिन के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रूप ही असमवायिकारण है । जब अवयव में रूप होगा तब स्वसामग्री से अवयवी में रूप उत्पन्न होगा । इस सामान्य कार्य कारणभाव से ही निर्वाह हो जाने से समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलादि को अग्रमवायिकारण मानने का कोई प्रयोजन नहीं होने की वजह तादृश अनेक कार्य कारणभाव के स्वीकार की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि नीलादि के प्रति नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने से ही नीलेतराभावादिस्वरूप प्रतिबन्धकाभावात्मक कारण से नीलादि रूप की उत्पत्ति हो सकती है । अतएव नीलादि के प्रति नीलादि को स्वतंत्रता कारण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि 'नीलादि के प्रति नीलादि को कारण न मान कर नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने पर समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा और अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध मे नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा, अन्यथा नीलपीतकपालद्वयान्य घट में उत्पन्न होनेवाले नील रूप की नील कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि अवच्छेदकतासम्बन्ध से नील रूप का तब कोई कारण न होगा। मगर ऐसा स्वीकार करने में प्रतिबन्धकाभावनिष्ठ कारणता का अवच्छेदक सम्बन्ध स्वाश्रयत्व और स्वाश्रयसमवेतत्व होने से कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम दोष आयेगा । जैसे पहले प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीर में इतरत्व के प्रवेश - अप्रवेश से प्रयुक्त विनिगमनाविरह से दोनों का स्वीकार करने पर प्राप्त प्रतिबन्धकाभावनिष्ठ कारणता के अवच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम दोष आता था' <- तो यह अनुचित है,