________________
छ स्मृतियाँ
श्री शिवसहाय चतुर्वेदी
सन् १९०६ या १० की बात है । उम समय में केसली में मास्टर था । दिसम्बर की छुट्टी में घर श्राया था । अभी तक प्रेमीजी से मेरी घनिष्टता नही हुई थी । साधारण परिचय मात्र था । एक दिन सन्ध्या समय मैने देखा कि बाज़ार की एक दहलान में प्रेमीजी को घेरे हुए बहुत से मास्टर बैठे है और कुछ लिख रहे हैं । कौतूहलवश मैं भी वहाँ जा पहुँचा। मालूम हुआ, प्रेमीजी बम्बई से आये है । कुछ दिन यहाँ रहेंगे । मास्टरो के आग्रह पर प्रति-दिन बँगला भाषा सिखाया करेंगे। इस समाचार ने मुझे हर्ष-विषाद के गम्भीर आवर्त में डाल दिया । हर्ष इस बात का कि एक नई भाषा सीखने का अवसर है । विषाद इसलिए कि मै इस अवसर से लाभ उठाने में असमर्थ था । मेरी छुट्टी समाप्त हो चुकी थी और मुझे दूसरे दिन प्रात काल केसली जाना था। मैने अपनी अभिलाषा और कठिनाई प्रेमीजी को कह सुनाई । कठिनाई की इस विषम गुत्थी को एक सुदक्ष पुरुष की नाई उन्होने तत्काल सुलझा दिया । बँगला भाषा के 'साहित्य' नामक पत्र की एक फाइल उनके सामने रक्खी थी । उसे मेरी चोर बढाते हुए उन्होने कहा, " प्राप इसे ले जाइए । मै बँगला वर्णमाला की पहिचान कराये देता हूँ । बाकी अभ्यास से आप स्वय सीख जावेंगे ।" फाइल लेकर मैं उसके पन्ने इधर-उधर पलटने लगा । मोटे-मोटे शीर्षक के अक्षरों में प्रेमीजी ने बतलाया कि देखो, यह अ है, यह ख और यह भ । इत्यादि । प्रेमीजी बतलाते गये और में पेंसिल से उन पर हिन्दी में लिखता गया । दूसरे दिन मैं केसली चला गया। थोडे ही दिन के अभ्यास से मैं उस फाइल के लेख पढने लगा । अभ्यास से कुछ-कुछ मतलब भी समझ में आने लगा । जब किसी शब्द का अर्थ मालूम न पडता तब उस शब्द को घटो खोजता कि वह कहाँ और किस अर्थ में आया है । इस तरह उसके शब्दो, विभक्तियों आदि से परिचित होता गया । एक महीने पीछे मैने प्रेमजी को बंगला में एक पत्र लिखा । वे उस समय बम्बई पहुँच चुके थे । प्रेमीजी की दूकान के साझीदार श्री छगनमल बाकलीवाल को बहुत समय बगाल में रहने का अवसर मिला था। वे बँगला अच्छी तरह लिख और बोल सकते थे । उन्होने मेरे पत्र का उत्तर बँगला में दिया । मेरे परिश्रम की सराहना करते हुए उन्होने बँगला की तीन-चार गद्य-पद्य की पुस्तकें मेरे अभ्यास के लिए भेज दी कुछ समय पीछे मैने प्रेमीजी की दी हुई 'साहित्य' की फाइल में से 'कञ्छुका', 'जयमाला' आदि गल्पो का अनुवाद करके उनके पास भेजा । ये गल्पें 'जैन - हितैषी' मासिकपत्र मे प्रकाशित हुई और पश्चात् 'हिन्दी- अन्य - रत्नाकर - कार्यालय' से प्रकाशित 'फूलो का गुच्छा' नामक कहानी-संग्रह में भी सम्मिलित
।
की गई ।
X
‘X
X
I
मध्य-प्रदेश के तत्कालीन चीफ कमिश्नर बेञ्जामन राबर्टसन दौरे पर देवरी आ रहे थे । यह सन् १९१८ की बात है। उनकी रसद के इन्तजाम के नाम पर तहसील के सिपाहियों ने देवरी तथा निकटवर्ती देहातो में खूब लूट मचा रक्खी थी । लकडी, घास, खाट पलग, बर्तन आदि अनेक वस्तुएँ सग्रह की जा रही थी । गाडी-बैल, भैंसे बेगार में दस-पन्द्रह दिन पहले से ही पकड़े जा रहे थे । सिपाही लोगो के घर जा खडे होते और यदि उनके हाथ गरम न कर दिये जाते तो वे उनकी वस्तुएँ बलात् ले जाते थे । साहव बहादुर के चले जाने के पश्चात् रसद का बचा हुआ सामान नीलाम किया गया । स्थानीय हलवाइयो को खूब खोवा बेचा गया। उस समय सौभाग्य से प्रेमीजी देवरी आये हुए थे । गरीब लोगो की यह तवाही उनसे न देखी गई। उन्होंने इस विषय में "देवरी में नादिरशाही, चीफ कमिश्नर का दौरा और प्रजा की तबाही" शीर्षक एक लेख 'प्रताप' में भेज दिया । लेख छपते ही अफसरो में खलबली मच गई। तहसीलदार और छोटे साहव दौडे आये । तहक़ीक़ात की गई । लेख लिखने वाले पर मुकद्दमा चलाने की