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१५णतारा ] परिणामों से अशुभ (हवाद) हो जाता है । (सुद्धेण) जब शुद्ध भाव से परिणमन करता है (तदा) तब (हि) निश्चय से (सुद्धो) शुद्ध होता है ।
__इसी का भाव यह है कि जैसे स्फटिकमणि का पत्थर निर्मल होने पर भी जपा पुष्प आदि लाल, काली, श्वेत उपाधि के वश से लाल, काला, श्वेत रंग रूप परिणम जाता है, तैसे यह जीव स्वभाव से शुद्धबुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहार करके गृहस्थ अपेक्षा यथासंभव राग-सहित सम्यक्त्व-पूर्वक दान पूजा आदि शुभ कार्यों के करने से तथा मुनि को अपेक्षा मूल व उत्तर गुणों को अच्छी तरह पालन रूप वर्तने में परिणमन करने से शुभ है, ऐसा जानना योग्य है। मिथ्यादर्शन सहित अविरतिभाव, प्रमादभाव, कषायभाव व मन वचन काय योगों के हलन चलनरूप भाष, ऐसे पांच कारणरूप अशुभोपयोग में वर्तन करता हुआ, अशुभ जानना योग्य है तथा निश्चल रत्नत्रयमय शुद्ध उपयोग से परिणमन करता हुआ, शुद्ध जानना चाहिये। इसका क्या प्रयोजन है सो कहते हैं कि सिद्धान्त में जीव के असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं। मध्यम वर्णन की अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि १४ गुणस्थान रूप से कहे गए हैं । इस प्रवचनसार प्राभूतशास्त्र में उन्हीं गुणस्थानों का संक्षेप से शुभ अशुभ तथा शुद्ध-उपयोग रूप से वर्णन किया गया है । सो ये तीन प्रकार के उपयोग १४ गुणस्थानों में किस तरह घटते हैं तो कहते हैं-मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से कमती-कमती अशुभ उपयोग है। इसके पीछे असंयत सम्यग्दष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत ऐसे तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुभोपयोग है। उसके पीछे अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक छः गणस्थानों में तारतम्य से शुद्धोपयोग है। उसके पीछे संयोगिजिन और अयोगिजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है, ऐसा भाव है।
अथ परिणाम वस्तुस्वभावत्वेन निश्चिनोतिणस्थि विणा परिणाणं अत्यो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्यो अत्यो अत्थित्तणिव्वत्तो ॥१०॥
नास्ति विना परिणाममर्थोऽयं विनेह परिणामः ।
द्रव्यगुणपर्ययस्योऽर्थोऽस्तित्व निर्वृतः ।।१०।। न खलु परिणाममन्तरेण वस्तु सत्तामालम्बते वस्तुनो द्रव्यादिभिः परिणामात् पृपगुपलम्भाभावालिः परिणामस्य खुरशृङ्गकल्पत्याद् दृश्यमानगोरसादिपरिणामविरोधाच्च अन्तरेण यस्तु परिणामोऽपि न सत्तामालम्बते, स्वाश्रयभूतस्य वस्तुनोऽमावे निराश्रयस्य