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पवयणसारो ]
उस पर्याय या भाव के साथ तन्मय हो जाता है, ऐसा (पण्णत) कहा गया है । (तम्हा) इसलिये (धम्म परिणदो) धर्म रूप भाव से वर्तन करता हुआ (आवा) आप्मा (धम्मो) धर्मरूप (मुणेदयव्यो) माना जाना चाहिये।
तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध आत्मा के स्वमाव में परिणमन होते हए जो भाव होता है, उसे निश्चय धर्म कहते हैं तथा पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिरूपी परिणति या भाव को व्यवहारधर्म कहते हैं । क्योंकि अपनी-अपनी विवक्षित पर्याय से परिणमन करता हुआ द्रव्य उस पर्याय से तन्मय हो जाता है, इसलिये पूर्व में कहे हुए निश्चय धर्म और व्यवहारधर्म से परिणमन करता हुआ आत्मा ही गर्म लोहे के पिंड की तरह अभेव नय से धर्मरूप होता है, ऐसा जानना चाहिये । यह भी इसीलिये कि उपाबानकारण के सदृश कार्य होता है, ऐसा सिद्धान्त का वचन है तथा वह उपादानकारण शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। केवलज्ञान की उत्पत्ति में रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदनज्ञान तथा आगम की भाषा से शुक्ल-ध्यान शुद्ध उपादानकारण हैं तथा अशुद्ध आत्मा रागादिरूप से परिणमन करता हुआ अशुद्ध निश्चयनय से अपने रागादि भावों का अशुद्ध उपादानकारण होता है। अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तवा सुद्धो हवदि हि परिणाससब्भावो ॥६॥
जोवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः ।
शद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणाणमसद्भावः ॥६॥ यदाऽयमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपा-तापिच्छरागपरिणतस्फटिकवत् परिणामस्वभावः सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुनः शुद्धनारागभावेन परिणमति तदा शुद्धारागपरिणतस्फटिकवत्परिणामस्वभावः सन् शुद्धो भवतीति सिद्ध जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वम् ।।६।।
भूमिका—अब जीव की शुभस्वरूपता, अशुभस्वरूपता और शुद्धस्वरूपता का निश्चय करते हैं
अन्वयार्थ— [जीव ] जीव | यदा | जब [शुभेन] शुभ भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तब [शुभः भवति] स्वयं ही शुभ होता है, वही जब जब [अशुभेन] अशुभ भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तब [अशुभः भवति] स्वयं ही