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चेतन सम्बन्ध है । इसलिए वह जानना चाहता है कि मनुष्य की विश्व में क्या स्थिति और स्थान है । उसका दूसरों से क्या सम्बन्ध है और वह किस प्रकार अपने स्थिति - ज्ञान के अनुरूप कर्म करता है । यहाँ पर पुनः नीतिशास्त्र का तत्त्वदर्शन से अनन्य सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है । तत्त्वदर्शन उसे बताता है कि मनुष्य केवल अपने सीमित परिवार या राष्ट्र का ही नागरिक नहीं है, वह समस्त मानव समाज – 'वसुधैव कुटुम्बकम्' – का भी अविच्छिन्न अंग है । उसका विश्व से आत्मीय सम्बन्ध है, और इस सत्य के आधार पर नीतिशास्त्र मनुष्य के जीवन का ध्येय सार्वभौम तथा सर्व कल्याणकारी बताता है । तत्त्वदर्शन के निष्कर्ष नीतिशास्त्र को जिस रूप में प्रभावित करते हैं उस रूप में वे वैज्ञानिक जगत में अनिवार्य रूप से ऊहापोह नहीं मचा सकते हैं । नीतिशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि किसी भी नीतिज्ञ का नैतिक ज्ञान उसके तत्त्वदर्शन के उस पक्ष से पूर्ण गम्भीर रूप से प्रभावित होता है जो कि उसके दृष्टिकोण को शासित करता है । नीतिज्ञों ने नैतिक प्रश्नों का उत्तर अपनी विश्व-विधान की धारणा के अनुरूप ही दिया है। भौतिकवादियों ने केवल वैयक्तिक ऐहिक मुख को ही जीवन का ध्येय बताया है किन्तु अध्यात्मवादियों ने समस्त विश्व के कल्याण को महत्त्व दिया है । इस प्रकार नीतिशास्त्र कर्मों का मूल्यीकरण करने के लिए, प्रचार के औचित्य - अनौचित्य को निर्धारित करने के लिए तत्त्वदर्शन के अत्यधिक समीप आता है । इसीलिए अनेक विचारकों ने इसे नैतिक-दर्शन या श्राचार-व्यवहार का दर्शन भी कहा है ।
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नैतिक अभिधारणाएँ, संकल्प-स्वातन्त्र्य, श्रात्मा की श्रमरता, ईश्वर का अस्तित्व – संकल्प की स्वतन्त्रता' नीतिशास्त्र की वह अनिवार्य आवश्यकता है जिसके बिना नैतिक आचरण सम्भव ही नहीं है । 'नैतिक चाहिए' का अर्थ ही यह है कि हम उस आचरण को करने की क्षमता रखते हैं जो उचित एवं नैतिक है । संकल्प स्वातन्त्र्य, नैतिक अर्थ में, उस प्राचरण का सूचक नहीं है जो प्रेरणारहित है, अथवा जो यों ही, आवेगों के वशीभूत होकर किया जाता है या बिना सोचे-समझे किया जाता है वरन् उस आचरण का जिसे भली-भाँति सोचसमझकर सचेत भाव से किसी निर्दिष्ट लक्ष्य एवं मूल्य की प्राप्ति और संरक्षण के लिए किया जाता है ।
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इसी भाँति आत्मा की अमरता और ईश्वर का अस्तित्व भी नैतिक
१. देखिए - पृ० २३ तथा प्रध्याय ७ ।
३८ / नीतिशास्त्र
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