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परिस्थिति-विशेष से सक्रिय रूप से सम्बद्ध हैं। नैतिक नियम सार्वभौम और अनिवार्य नहीं हैं । वे देश और काल की भिन्नता के अनुरूप भिन्न हैं। वास्तव में ज्ञान अनुभव-सापेक्ष है । जीवन-संघर्ष के क्रम में मनुष्य विभिन्न प्रभावों को प्राप्त करते हैं। मानव-जाति के लिए जो अनुभवजन्य ज्ञान है वही व्यक्ति के लिए अनुभव-निरपेक्ष हो जाता है । आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सहजात लगता है । आचरण के औचित्य और अनौचित्य का ज्ञान अनुभवजात ज्ञान है । सत्य बोलना, चोरी न करना, जाति के कल्याण की भावना प्रादि सहजात इस अर्थ में हैं कि मानव-जाति ने अनुभव से सीखा है कि ये जाति और व्यक्ति के संरक्षण में सहायक होते हैं। स्वयं-सिद्ध नैतिक सत्य अनुभव द्वारा अजित सत्य है। ये सापेक्ष और परिवर्तनशील हैं।
कर्तव्य की भावना; स्वार्थ-परमार्थ का प्रश्न-स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को उपयोगितावादियों ने उठाया था और उन्होंने भावना द्वारा उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करने का असम्भव प्रयत्न किया था। इस प्रश्न को विकासवादियों ने फिर से उठाया। स्पेंसर ने इनके विरोध के मूल में अपूर्ण सामंजस्य देखा । लेस्ली स्टीफेन स्पष्ट रूप से मानता है कि कर्तव्य और सुख में पूर्ण संगति नहीं है । कुछ पारमार्थिक कर्म दुःखप्रद भी हैं। पर साथ ही वह कहता है कि व्यक्ति का अपना सुख ही परम ध्येय नहीं है। उसके लिए यह अनिवार्य है कि जीवन की सामान्य परिस्थितियों के योग्य होने के लिए वह पारमार्थिक प्रवृत्तियों को अजित करे । सामाजिक जीव-रचना का सदस्य होने के कारण व्यक्ति समाज के सूख और कल्याण के लिए अपने सुख को भूल जाता है। स्वेसर का सिद्धान्त लेस्ली स्टीफेन और अलेग्जेण्डर की तुलना में अधिक व्यक्तिवादी है। वह कहता है कि प्रत्यक्ष ध्येय प्रात्मसंरक्षण है और अप्रत्यक्ष ध्येय जाति-संरक्षण । किन्तु लस्ली स्टीफेन और अलेग्जेण्डर सामाजिक स्वास्थ्य अथवा सामाजिक विधान की साम्यावस्था को ही परम शुभ मानते हैं । ऐसी स्थिति में सुखवाद (वैयक्तिक सुख) के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । वास्तव में विकासवादियों ने भी सुखवादियों की भाँति सुख-कर्तव्य, स्वार्थ-परमार्थ एवं शुभ और सद्गुण में विरोध मान लिया। सुखवादियों ने भावना द्वारा उनमें संगति स्थापित करनी चाही और विकासवादियों ने जैव विकास द्वारा इस कठिनाई को दूर करना चाहा। अपने इस प्रयास में उन्होंने नैतिक विकास को प्राकृतिक चयन द्वारा समझाया जिसके अनुसार योग्यतम की विजय ही विभिन्न नैतिक नियमों की जन्मदात्री बन जाती है एवं नैतिकता
२०० / नीतिशास्त्र
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