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उदासीन होने के लिए कहता है जो श्रेष्ठ इच्छात्रों की तृप्ति में एवं आत्मसन्तोष के मार्ग में बाधक हैं । वास्तव में आत्म-सन्तोष तभी प्राप्त होता है जब आत्मा अपने पूर्ण रूप में-बुद्धि और भावना-सन्तुष्ट होती है।
नैतिक जीवन में कर्तव्य के अर्थ-काण्ट ने अपने नैतिक दर्शन में व्यावहारिक बुद्धि के निरपेक्ष आदेश अथवा नैतिक सिद्धान्त की चरमता को सिद्ध करना चाहा। अत: उसने कर्तव्य के सिद्धान्त को महत्त्व दिया और यह कहा कि कर्तव्य ही परम नैतिक निरपेक्ष आदेश है। उसने अपने कर्तव्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय इच्छाओं और भावनाओं का निराकरण करके, उन्हें अनात्म्य–बाह्य शक्तियाँ-कहकर भारी भूल की । इस भूल को दूर करने के लिए ही उसने नैतिक भावना की उत्पत्ति बुद्धि से की है। उसका यह प्रयास उतना ही असफल है जितना कि पेड़ की डाल को काटकर उसे पूनः गोंद से जोड़ने का प्रयास होता है। उसने जीवन को अत्यन्त नीरस और अनाकर्षक बना दिया। पुष्पविटप की सार्थकता उसके सुचारु रूप से पुष्पित होने में है। वही जीवन सार्थक और वांछनीय है जिसमें भावनाओं और बद्धि का समवेत गान है, जिसमें भावनाएँ बद्धि का सम्पर्क पाकर विकसित होती हैं और बद्धि भावनाओं के साहचर्य से सुगन्ध को प्राप्त होती है । कर्तव्य के रूपात्मक सिद्धान्त ने जीवन को अवांछनीय, अरुचिकर और अनाकर्षक बना दिया है। यह सत्य है कि वैयक्तिक लाभ और यश की प्रच्छन्न आशा से किया हमा कर्म अनैतिक है। किन्तु क्या इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि स्नेह, दया, दान आदि से अनायास किये कर्म भी अनैतिक हैं ? क्या वही कर्म उचित है जिसे करने के पहले कर्ता उसे कर्तव्य की 'तुला के प्रौचित्य और अनौचित्य के बाटों में तोल लेता है और यह स्मरण रखता है कि 'मैं कर्तव्य कर रहा हूँ ?' यदि कोई दानी व्यक्ति दान देते समय यह ध्यान में रखे कि 'मैं दान दे रहा हैं और इसके विपरीत. दूसरा व्यक्ति सहज-दयावश दान दे तो क्या दूसरे व्यक्ति के कर्म को अनैतिक कहना. विवेकसम्मत होगा ? कर्तव्य के सिद्धान्त को बिल्कुल ही विषयहीन मानकर काण्ट ने 'कर्तव्य' की ऐसी अमूर्त धारणा को अपना लिया है जो अर्थशून्य है। 'कर्तव्य का बोध इच्छाओं और भावनाओं से पूर्ण सामान्य व्यक्ति के हृदय में ही उत्पन्न हो सकता है, देवता या दानव के हृदय में नहीं।' अथवा कर्तव्य का बोध तभी उत्पन्न होता है जब इच्छाओं में द्वन्द्व होता है। जब व्यक्ति को अपने विचारों-प्रादर्शों के अनुरूप कर्म करने के लिए दृढ़ अभ्यासों को छोड़ना पड़ता है, सहज प्रवृत्तियों पर संयम रखना पड़ता है तथा
बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२६
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