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है । निर्वाण पूर्ण ज्ञान, शील और शान्ति का सूचक है, यह इसी जीवन में परम शान्ति, आध्यात्मिक आनन्द की वह स्थिति है जिसकी तुलना क्षणिक या ऐन्द्रिय सुख से नहीं कर सकते हैं। यह पूर्णता की स्थिति है, अतः अनिर्वचनीय है, अचिन्त्य, अकल्पनीय है । इसका हम केवल नकारात्मक वर्णन कर सकते हैं। इसकी पूर्णता को जब भावात्मक विशेषणों द्वारा समझाते हैं तब यह ध्यान में रखना होता है कि ये विशेषण उसकी पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकते हैं क्योंकि निर्वाण साधारण अनुभव, सामान्य ज्ञान द्वारा नहीं समझा जा सकता है।
दुःख-निरोध का मार्ग-निर्वाण की प्राप्ति निर्वाणप्राप्ति के पथ को प्रशस्त करती है । निर्वाण एवं दुःख-निरोध का मार्ग नैतिकता का मार्ग है, यह आर्य अष्टांगिक मार्ग है जो ज्ञान और शील के ऐक्य को स्थापित करता है। बुद्ध ने स्वयं इस मार्ग का अनुसरण किया और इसे निर्वाणप्राप्ति के लिए अनिवार्य माना। अष्टांगिक मार्ग से अभिप्राय है- (१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्म, (५) सम्यक् आजीव, (६) सम्यक व्यायाम, (७) सम्यक स्मति और (८) सम्यक समाधि ।
अात्मा तथा जगत के बारे में उचित ज्ञान एवं चार आर्य सत्यों का उचित ज्ञान ही सम्यक् दृष्टि है। अविद्या मिथ्या दृष्टि को जन्म देती है और यह हमारे दुःख का कारण है। उचित दृष्टि एवं नैरात्म्यवाद' पर उचित विश्वास रखना आवश्यक है। सम्यक दृष्टि अर्थात् चार आर्य सत्यों का ज्ञान सम्यक संकल्प की ओर ले जाता है। निर्वाण के लिए ज्ञान अपने-आपमें पर्याप्त नहीं है, ज्ञान के अनुरूप आचरण अनिवार्य है। अतः सम्यक् दृष्टि सम्यक् संकल्प की अपेक्षा रखती है । सम्यक् संकल्प सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति तथा हिंसा
और विद्वेष का त्याग है। यह त्याग, परोपकार और करुणा को अपनाना है। सम्यक संकल्प केवल मानसिक नहीं होना चाहिए, इसे कार्य रूप में परिणत होना चाहिए। सम्यक् संकल्पवाला सर्वप्रथम अपनी वाणी, 'वचन', पर नियन्त्रण रखता है। यह सम्यक् वाक् है । 'सत्य, शुभ और उचित पर स्थिर रहना' ही सम्यक वाक है। यह मनुष्य को अप्रिय कठोर वचन, निन्दा, वाचालता, अशुभ,
१. निर्वाण के स्वरूप के बारे में हीनयान तथा महायान (बौद्ध दर्शन की शाखामों) में मतभेद
२. प्रात्मा परिवर्तनशील मानसिक और भौतिक तत्त्वों का संघात है एवं मनुष्य काय, चित्त
और विज्ञान का संघात ही मनुष्य है ।
३६८ / नीतिशास्त्र
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