Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 370
________________ मिथ्या कथन से दूर रखता है । सम्यक् संकल्प का एक रूप सम्यक् वाक् है तो दूसरा रूप सम्यक् कर्मान्त है । सम्यक् संकल्प को कर्म में परिणत करना सम्यक् कमन्त है। हिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रिय संयम सम्यक् कर्मान्त को अभिव्यक्त करते हैं । मन और कर्म की विशुद्धता सम्यक् प्राजीव को महत्त्व देती है । वह बतलाती है कि मनुष्य को उचित ढंग से जीविकोपार्जन करना चाहिए । जीविका निर्वाह के लिए अनुचित, अशुभ, अनैतिक साधन को नहीं अपनाना चाहिए | सम्यक् व्यायाम कुसंस्कारों के उन्मूलन को महत्त्व देता है । सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्ति, सम्यक् प्राजीव को अपनाने पर भी यह सम्भव हो सकता है कि दढ़ पुराने कुसंस्कार हमें हमारे मार्ग से विचलित कर दें | इसलिए धर्म मार्ग में सम्यक् व्यायाम की अत्यन्त आवश्यकता । इस बात का निरन्तर ध्यान रखना चाहिए कि कुसंस्कार व्यक्ति पर हावी होकर उसे धर्म मार्ग से स्खलित न कर दें । अतः निरन्तर प्रयास की श्रावश्यकता है और यह चार बातों को महत्त्व देना है : ( १ ) पुराने बुरे भावों का पूर्ण विनाश होना अनिवार्य है । ( २ ) नये बुरे तथा निषिद्ध भाव उत्पन्न न होने पायें । ( ३ ) मन कभी शान्त एवं विचाररहित नहीं रह सकता है इसलिए मन में अच्छे विचार उत्पन्न करने चाहिए । ( ४ ) अच्छे विचारों को मन में देखने के लिए सतत प्रयास करना चाहिए । सम्यक् स्मृति इस ओर ध्यान आकर्षित करती है कि धर्म मार्ग तलवार की धार है, यह अत्यन्त सतर्कता चौर चेष्टा की अपेक्षा रखता है। जिन विषयों का ज्ञान प्राप्त हो गया हो उनका सदैव स्मरण रखना चाहिए। शरीर का शरीर, वेदना का वेदना, चित्त का चित्त और मानसिक दशा का मानसिक दशा के रूप में ही चिन्तन करना चाहिए। इनमें से किसी के लिए भी यह सोचना कि 'यह मैं हूँ' या 'यह मेरा हैं' भ्रमपूर्ण है । क्योंकि यह भ्रमपूर्ण चिन्तन हमें सत्य से अलग कर देता है, हम सक्ति और मोह में पड़ दुःख भोगते हैं । सम्यक् स्मृति के बारे में बुद्ध ने विस्तृत उपदेश दिये हैं । उन्होंने समझाया है कि शरीर क्षिति, जल, अग्नि तथा वायु का बना हुआ है । यह हाड़, मांस, त्वचा, अँतड़ी आदि हेय वस्तुओं का आगार है । श्मशान में हम इसके वास्तविक रूप को देखते हैं । यदि इस वास्तविक स्वरूप को ध्यान में रख लें, इसकी अनित्यता और हेयता को समझ लें तो इसके प्रति आसक्ति नहीं रहेगी । इसी भाँति वे वेदना, चित्त और मानसिक अवस्था के बारे में समझाते हैं उपर्युक्त चारों का सतत ध्यान हमें विषयों से विरक्त' बना देगा । जो मनुष्य अष्टांग मार्ग के सात नियमों का । बौद्ध नीतिशास्त्र / ३६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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