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साक्षात्कार (self-realization ) की स्थिति है । अथवा वह आत्म-बोध, आत्म-कल्याण और आत्म-समृद्धि की स्थिति है । जिस आत्मा का हम साक्षात्कार करते हैं एवं जिसकी पूर्णता प्राप्त करते हैं वह बौद्धिक आत्मा है । वह आत्मा इच्छात्रों और प्रवृत्तियों का हनन या त्याग नहीं करती वरन् उनका उन्नयन, दिव्यीकरण, बुद्धिकरण एवं अध्यात्मीकरण करके उन्हें अपनी परिपूर्णता के लिए सहायक बना लेती है । ऐसी आत्मा संकीर्ण आत्मा नहीं हो सकती । बौद्धिक आत्मा मानवता के साथ तादात्म्य अनुभव करती है । वह सामाजिक एवं सार्वभौम आत्मा अथवा विश्वात्मा है । विश्वात्मा की प्राप्ति के लिए संकीर्ण आत्मा का त्याग अथवा आत्म-त्याग अनिवार्य है । विश्वात्मा की प्राप्ति के लिए मानव जाति के हित को ध्यान में रखना आवश्यक है । मानवता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह उसी की आत्मा है । अतः मानवता के प्रति सहज स्नेह रखते हुए व्यक्ति को उसके कल्याण के लिए प्रयास करना चाहिए । साथ ही यह भी सच है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशेषताओं के साथ एक विशिष्ट परिवार, समाज और परिवेश में जन्म लेता है । उसका इनके प्रति कर्तव्य है । उसे चाहिए कि समाज में अपनी स्थिति, अपनी योग्यता तथा विशिष्ट प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए अपनी बौद्धिक आत्मा का विकास करे । वह मनुष्य जिसने आत्म बोध प्राप्त कर लिया है अपने सामाजिक उत्तरदायित्व तथा स्वयं अपने प्रति कर्तव्य के लिए पूर्ण रूप से सचेत होता है । उसे उसका ग्रात्म-बोध श्रानन्द देता है । यही आत्म-सन्तोष है । अतः श्रात्म-सन्तोष, आत्म-वोध एवं पूर्णता का सूचक है । वह ध्येय का अनिवार्य अथवा अभिन्न तत्त्व है ।
पूर्णतावादियों का कालक्रम के आधार पर विभाजन किया जा सकता है । प्राचीन काल में पूर्णतावाद के विख्यात प्रतिपादक प्लेटो और अरस्तू हुए हैं तथा आधुनिक काल में हीगल, ग्रीन और ब्रेडले ।
प्राचीन काल : प्लेटो और अरस्तू
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बौद्धिक और अबौद्धिक श्रात्मा का प्रश्न - बुद्धिवादियों और सुखवादियों 'मनुष्य 'के स्वभाव की जो द्वैतवादी व्याख्या की उससे प्रारम्भ के विचारक अनभिज्ञ थे यद्यपि उन्होंने इस बात का अनुभव किया था कि उचित जीवन ही बौद्धिक जीवन है । सुकरात के अनुसार मनुष्य का जीवन बौद्धिक है और इसमें भावनात्रों की तृप्ति के लिए स्थान है । आत्म परीक्षित और आत्मनिर्देशित जीवन में बुद्धि निर्धारित करती है कि भावनाओं की तृप्ति कहाँ तक
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