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त्मिक जीवन का वरण कर लिया। बारह वर्ष तक कठोर आत्म-संयम, आत्मवर्जन का पालन करने के परिणामस्वरूप वे जिन हो गये। अपने जीवन के अन्तिम तीस वर्ष उन्होंने जैन धर्म पर भाषण देने, संन्यासियों को एकत्रित करने एवं जैन आचरण का विधान बनाने में व्यतीत किये।
अनीश्वरवाद-जैन धर्म अनीश्वरवादी और अवैदिक है, यह न तो वेदों के आदेश को मानता है और न ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार करता है। जैनी मुख्यतः अहिंसावादी हैं, वे पशु-बलि द्वारा ईश्वर अथवा किसी भी सत्ता को प्रसन्न करने की बात स्वीकार नहीं कर सकते । पशु-बलि की तीव्र आलोचना करते हुए वे समझाते हैं कि ईश्वर है ही नहीं, अतः पशु-बलि की आवश्यकता नहीं है । हमारे जीवन का ध्येय आचरण की पूर्णता द्वारा अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करना है। पूर्ण अहिंसा का जीवन जीना ही वांछनीय है।
नीतिशास्त्र जीव : बद्ध और मुक्त-जैन धर्म में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं : (१) सत्ता की यथार्थवादी व्याख्या एवं अनेकतावादी तत्त्वदर्शन; (२) ज्ञानमीमांसा अथवा स्याद्वाद; तथा (३) वैराग्यवादी नैतिकता । जैन धर्म अपने कठोर नीतिशास्त्र के लिए प्रसिद्ध है । इसके द्वारा यह चारित्रिक पूर्णता, प्रात्मउपलब्धि को परम महत्त्व देता है। जीव एवं आत्मा अपने सच्चे स्वरूप में अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति तथा अनन्त विश्वास है। जीव अनन्त है, सब समान और शाश्वत हैं। कर्म पुदगल के कारण जीव बन्धन में पड़ जाता है। उसका ग्राभ्यन्तरिक रूप छिप जाता है। मूलतः समान होते हुए भी जीव अपनी बद्ध स्थिति में, देह के आकार के कारण, एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं । अत: जीव दो प्रकार के होते हैं : बद्ध और मुक्त । मुक्त जीव समान हैं किन्तु बद्ध जीवों में भिन्नता मिलती है। जीव चेतनात्मक है, चेतना उसका लक्षण है--चेतनालक्षणो जीवः । यद्यपि चेतना प्रत्येक जीव का मूलभूत लक्षण है किन्तु देह-पुदगल—की प्राकृति के अनुसार उनमें भिन्नता मिलती है । पूर्व जन्म के संस्कार, कर्म एवं प्रवृत्ति के कारण जीव एक विशिष्ट देह के प्रति अाकर्षित हो जाता है। पूर्व जन्म के कर्म उसके शरीर, वर्ण, परिवार, आयु आदि सभी को निर्धारित करते हैं। देह के अनुसार जीव का पुनः वर्गीकरण कर सकते हैं : त्रस (गतिमान) जीब और स्थावर (गतिहीन)। स्थावर जीव में केवल एक इन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-होती है। ये जीव जल, अग्नि, वायू, क्षिति तथा वनस्पति-रूप शरीरों में रहते हैं। बस जीवों में विकास-भेद मिलता है। इस विकास-भेद को दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियों के आधार पर समझाया जा
जैन नीतिशास्त्र | ३६१
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