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सकता है । उच्च पशु, पक्षी तथा मनुष्य पाँच इन्द्रियों से युक्त हैं । मनुष्य इनमें श्रेष्ठ है, उसमें पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त मन भी है । वह बौद्धिक प्राणी है। मनुष्य से श्रेष्ठ सिद्ध आत्माएँ ( पूर्ण ज्ञानी ) है ।
आत्मा का स्वरूप तथा बन्धन - देह एवं इन्द्रिय आत्मा के मूल स्वरूप की सूचक नहीं हैं । इन्द्रियगत भेद सांसारिक एवं बद्ध जीव की विकास की स्थिति पर प्रकाश डालता है । बद्ध जीव प्राध्यात्मिक और भौतिक प्राणी है । अपने भौतिक रूप में वह बद्ध है, उसका ज्ञान सापेक्ष और सीमित है, वह भोक्ता और कर्ता है, उसका जीवन दुःखपूर्ण है क्योंकि वह पुद्गल से युक्त है । किन्तु प्रश्न यह है कि जीव जीव एवं पुद्गल से क्यों युक्त होता है ? जैनियों का कहना है कि पूर्व जन्म के कर्मों अथवा कषायों ( क्रोध, मान, मोह, लोभ) के कारण कर्म पुद्गल जीव में चिपक जाते हैं । कर्म पुद्गल का जीव में चिपकना प्राश्रव कहलाता है । यही जीव का बन्धन (बन्ध ) में पड़ना है । बन्धन के दो प्रकार हैं— भाव-बन्ध तथा द्रव्य - बन्ध । दूषित - कलुषित मनोभावों का मन में होना भाव-बन्ध है तथा जीव का पुद्गल से प्राक्रान्त हो जाना द्रव्य-बन्ध है ।
बन्धन की स्थिति में पड़े रहना जीव की नियति नहीं है । वह आत्म प्रयास, नैतिक कर्म द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है । मुक्ति पाने अथवा अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करने के लिए त्रिरत्न तथा पंच महाव्रत का पालन अनिवार्य है । इनका पालन करने से प्रारम्भ में नये पुद्गलों का प्राश्रव बन्द हो जाता है, यह सम्वर की स्थिति है । इसके पश्चात् पुराने पुद्गल के अणु-परमाणु भी जीर्ण होकर खत्म हो जाते हैं । इस स्थिति को जैनी निर्जर की स्थिति कहते हैं । अतः इस स्थिति में जीव का पुद्गल से वियोग हो जाता है और यही उसकी मुक्ति है । वह अपनी पूर्णता और अनन्तता को प्राप्त कर लेता है— अपने इस सच्चे स्वरूप में वह अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रानन्द अनन्त शक्ति तथा अनन्त विश्वास है ।
द्वारा
त्रिरत्न - त्रिरत्न से जैनियों का अभिप्राय सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान प्रौर सम्यक् चरित्र से है - सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः । सम्यक् दर्शन वे यह समझाते हैं कि जैन धर्म में पूर्ण विश्वास, तीर्थंकरों और मुक्तात्माओं के उपदेशों के प्रति पूर्ण श्रद्धा का होना आवश्यक है । सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है । सम्यक् ज्ञान अथवा जैन धर्म का उचित ज्ञान, जीव एवं द्रव्यों के वास्तविक स्वरूप का बोध आवश्यक है क्योंकि प्रज्ञान — उचित ज्ञान का अभाव — क्रोध, मान, मोह, लोभ को उत्पन्न करते
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३६२ / नीतिशास्त्र
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