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है । कठोर वैराग्यवाद - राग द्वेष के पूर्ण विनाश-द्वारा ही वह सभी के प्रति मंत्री भाव का अर्जन कर लेता है, सद्गुणी को देखकर उसे आनन्द होता है तथा दुःखी को देखकर उसमें करुणा उत्पन्न होती है । वैराग्यवाद अथवा रागहीनता आत्म-प्राप्ति का मुख्य साधन है । मन-वचन-कर्म से अहिंसा वह मूलगत सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों को जन्म देती है— सत्यता, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (लोभ) इसी पर आधारित हैं ।
नैतिक नियम आन्तरिक - कर्म का मूल्यांकन जैनी प्रेरणा की पवित्रता के आधार पर करते हैं । वही प्रेरणा शुभ या पवित्र है जो आसक्ति, विद्वेष, राग- मोह से अछूती है । ग्रतः कर्म का औचित्य उसके बाह्य परिणामों – चाहे वे दूसरों के लिए सुखद हों - पर निर्भर नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति नियोग अथवा नैतिक नियम का पालन करके अपनी आन्तरिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है । नियोग मुक्त जीव ( सर्वज्ञाता अथवा अर्हत ) का आदेश है । यद्यपि यह प्रतीत होता है कि नियोग प्रर्हत द्वारा आरोपित - बाह्यारोपित - है तथापि यह ग्रात्म-प्रारोपित है । नैतिक नियम मूलतः जीव ही है । यह वह है जिसे आत्मा स्वयं अपने ऊपर आरोपित करती है । अपनी आत्मा का आदेश ही नैतिक नियम, नैतिक बाध्यता या नियोग है । अत: नियोग एवं त्रिरत्न और पंच महाव्रत का पालन कर जीव प्रति नैतिक विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है । मुक्त जीव बद्ध जीव का मार्ग निर्देशन करता है । क्योंकि उसके बतलाये 雪 पथ ( नियोग ) का अनुसरण कर बद्ध जीव अपनी मुक्ति प्राप्त करता है |
जैन धर्म श्रात्म-प्रयास स्वावलम्बन में विश्वास करता है । मुक्ति अनुकम्पा से प्राप्त नहीं होती है । इसका अर्जन करना होता है । यह सिद्धान्त वैराग्य और संन्यास में विश्वास करता है । इसके आचरण सम्बन्धी नियम अत्यन्त कठोर हैं । जैन साधु का जीवन आत्म-वर्जन पूर्ण है । जहाँ तक जनसाधारण या गृहस्थ का प्रश्न है उनके नैतिक नियम साधु के आचरण सम्बन्धी नियमों से भिन्न हैं । जनसाधारण को साधु को आदर्श मानना होगा यद्यपि वे अणुव्रतों का पालन करते हैं न कि महाव्रतों का ।
३६४ / नीतिशास्त्र
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