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हैं । अतः बिना सम्यक् ज्ञान के इन कषायों से छुटकारा सम्भव नहीं है । जब तक कषाय रहेंगे तब तक जीव में कर्म पुद्गलों का आश्रव होता रहेगा, वह अजीव से युक्त रहेगा । सम्यक् ज्ञान तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि वह सम्यक् चरित्र से युक्त नहीं हो जाता । मन, वचन, कर्म से पवित्र और उदार होना उचित आचरण का सूचक है । सम्यक् चरित्र सांसारिक सुखों के प्रति विरक्त बनाता है । यह हिंसा, प्रेम आदि भावात्मक गुणों को जन्म देकर व्यक्ति को सद्गुणी बनाता है वस्तुतः सद्गुणी वह है जो पंच महाव्रत का पालन
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करता है ।
पंच महाव्रत - सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पंच महाव्रत हैं ।' सत्य सत्यभाषिता और प्रियभाषिता की अनिवार्यता का द्योतक है | सत्य ( सुनृत) तब तक पूर्ण है जब तक कि वह मधुर नहीं है । अतः सत्यवादी का प्रमुख कर्तव्य है कि वह कर्कश कठोर शब्दों का प्रयोग न करे; परनिन्दा, असभ्यता, चपलता, वाचालता आदि धार्मिकता के लक्षण हैं । हिंसा अपने भावात्मक अर्थ में व्यापक प्रेम को — जीव मात्र के प्रति प्रेम - अभिव्यक्ति देती है और अपने निषेधात्मक रूप में यह जीवों की हत्या का निषेध करती है । हिंसा परम धर्म है, पंच व्रतों में इसका श्रेष्ठ स्थान है । अस्तेय से अभिप्राय है चोरी न करने से । ब्रह्मचर्य वासनाओं के त्याग को लक्षित करता है । ब्रह्मचर्य का प्रयोग वे व्यापक अर्थ में करते हैं - यह सभी प्रकार की कामनाओं के परित्याग को महत्त्व देता है । अपरिग्रह ( परिग्रह एवं संचय न करना) सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति को अभिव्यक्त करता है क्योंकि विषयासक्ति मनुष्य को सांसारिकता की ओर ले जाती है जिस कारण उसे पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ता है ।
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पंच महाव्रत तथा त्रिरत्न का अभ्यास करने पर कर्म पुद्गलों का पूर्ण विनाश हो जाता है और संवर, निर्जरा जीव अपनी विशुद्धता अथवा पूर्णता - अनन्त चतुष्ट्य — को प्राप्त कर लेता है । यह विशुद्धता एवं मुक्ति अन्य कुछ नहीं है वरन् अपने आन्तरिक स्वरूप - स्वात्मनि अवस्था — को प्राप्त करना
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१. महाव्रतों का पालन करने अथवा सच्चा व्रती होने के लिए 'शल्य' का परित्याग भावश्यक ने । शल्य मुख्यतः तीन हैं एक-दम्भ, कपट, ढोंग प्रथवा ठगने की वृत्ति का त्याग । दो - निदान भोगों की लालसा का त्याग तथा तीन - मिथ्या दर्शन ( असत्य के प्रति आग्रह ) का त्याग एवं सत्य पर श्रद्धा रखना । इन मानसिक दोषों से मुक्त होने पर ही पंच महाव्रतों का सच्चे अर्थ में पालन किया जा सकता है ।
जैन नीतिशास्त्र / ३६३.
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