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डालकर मानव-दष्टिकोण को विकसित किया। गांधीजी के लिए ज्ञान और आचार अभिन्न हैं । पूर्ण शील ही पूर्ण प्रज्ञा है और पूर्ण प्रज्ञा ही पूर्ण शील है। वह यह मानते हैं कि जीवन और नैतिकता एक ही है। उनका जीवनरूपी कर्मक्षेत्र नैतिकता की सजीव मूर्ति था। उनके जीवन को समझना ही एक नवीन किन्तु चिरपुरातन नैतिक-सांस्कृतिक चेतना को समझना है। उनका जीवन आचार-शास्त्र का क्रियात्मक एवं सत्य रूप है।
गांधीजी ने अहिंसा को एक व्यापक सांस्कृतिक एवं नैतिक प्रतीक के रूप में ही हमारे सम्मुख रखा है। वह विश्व-मानवता का एकमात्र सार है और आज के विध्वंस के युग में मानव-जाति का एकमात्र जीवन-अवलम्ब है । गांधीजी ने अपने व्यक्तिगत जीवन के आदर्शों द्वारा अपराजित साहस, संयम, तत्परता, निर्भयता तथा जागरूकता को आत्मिक गुण बताया। वह स्वतन्त्र मानवीय चेतना के प्रतीक थे। त्यागी, तपस्वी तथा निर्भीक विचारक थे। वे अहिंसाव्रतधारी थे । अहिंसा को उनके अनुसार वही समझ सकता है जिसकी आत्मा का हनन न हुआ हो । 'मगर जो आदमी आत्मा से लला है, पंगू है, अन्धा है, वह अहिंसा को समझ नहीं सकता।' गांधी-दर्शन में कठोर यथार्थता है। वह नैतिक और सामाजिक आदर्शों का, त्याग और सेवा का, सत्य और अहिंसा का वह असिपथचारी धर्म है जो 'असत् से सत की ओर और अन्धकार से प्रकाश की ओर' ले जाता है।
गांधीजी | ३५६
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