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श्रहिंसा, श्रम तथा निष्ठा द्वारा व्यापक और मूर्त रूप देना आवश्यक है । यह
सिधारा का मार्ग है जो नीत्से के अतिमानव को शक्ति लालसा और पदाधिकार से मुक्त करता है | उसके पाशविक अट्टहास को प्रात्मानन्द में बदल देता है । समर्थ और चेतन मनुष्य को हिंसा से ऊपर उठाकर जनमंगल की ओर ले जाता है । वह मानव विकास, मानव उन्नति और लोक-सेवा में अपना सर्वस्व उसी प्रकार खो देता है जिस प्रकार भक्त भगवान् में । जनता ही उसके लिए जनार्दन है । ऐसे व्यक्ति को - समष्टि को अपनानेवाले को — प्रहिंसा प्रात्म बल देती है । गांधीजी के खिलाफत आन्दोलन, बारदोली, नमक सत्याग्रह, पौराणिक डाँडीयात्रा, असहयोग आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन, रौलेट ऐक्ट आन्दोलन, लगानबन्दी, आम हड़तालें आदि अहिंसात्मक कर्म उनके और उनके अनुयायियों के प्रत्मबल के ही सूचक हैं | अपने सत्य और अहिंसा के अज्ञेय पौरुष द्वारा उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को हिला दिया और सदियों की दासता के बन्धन को तोड़कर हिन्द के इतिहास में नवीन युग उपस्थित कर दिया । इसमें सन्देह नहीं कि अहिंसा का सिद्धान्त प्राचीन है । किन्तु इसका क्रियात्मक सामूहिक प्रयोग, विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम गांधीजी ने ही किया । बिना रक्त क्रान्ति के, बिना युद्ध के भारत को स्वतन्त्र करना अहिंसात्मक प्रात्म-शक्ति द्वारा ही सम्भव था । अहिंसा का सिद्धान्त व्यावहारिक है । यह उपयोगी है | अहिंसा, जो कि अभी तक विचारकों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों, नीति- चिन्तकों और सुधारकों का स्वप्न मात्र थी, उसे गांधीजी ने ही विश्वव्यापी धर्म बना दिया |
गांधीजी ने संसार को सत्य और अहिंसा के रूप में नया युग-धर्म देकर विश्व के इतिहास में एक युगान्तर उपस्थित कर दिया । उनका धर्म सत्तात्मक एकता और विश्वप्रेम के दृढ़ विश्वास पर आसीन है । वह राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र को नैतिक एकता के सूत्र में पिरोता है । गांधीजी ने विश्वनिर्माण, विश्व एकीकरण की नवीन सांस्कृतिक शक्तियों का आवाहन किया और आज इस नवीन युगधर्म के कारण ही मानवीय नैतिक चेतना जाग्रत हो रही है और विश्व शान्ति की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हो रहा है । अनासक्ति योग युग-युग से निष्क्रिय हृदयों को आकर्षित कर रहा है । गांधीजी के ज्ञान और कर्म के समन्वय ने मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में नवीन प्रालोक
है | शुद्धि होने का मतलब तो मन से, वचन से और काया से निर्विकार होना, राग-द्वेष आदि से रहित होता है । हिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है ।'
३५८ / नीतिशास्त्र
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