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श्यकता से अधिक खर्च न करना, दीनों को दान देना नैतिकता है । मनुष्य का नैतिक उन्नयन बाह्य परिस्थितियों, भौतिक घटनाओं तथा प्रार्थिक व्यवस्था के रक्त- कान्तिपूर्ण परिवर्तन द्वारा सम्भव नहीं है । जब तक व्यक्ति अपनी आत्मप्रेरित बुद्धि से समानता और लोककल्याण की भावना को स्वीकार नहीं करेगा तब तक सुख और शान्ति असम्भव है । दूसरे शब्दों में गांधीवाद प्रात्मोन्नति, आध्यात्मिक विकास तथा सांस्कृतिक उत्थान के द्वारा चिरस्थायी मंगलमय सामाजिकता की स्थापना करना चाहता है ।
आलोचना – ग्रालोचकों के अनुसार गांधीजी ने स्वप्नद्रष्टा की भाँति आदर्श आध्यात्मिक समाज स्थापित करने की चेष्टा की। उनका ध्येय प्रतिमानवीय है । उनके साधन प्रवास्तविक और अव्यावहारिक हैं । उनका 'वाद' कष्टसाध्य संन्यासवाद के समान है । वे शुद्ध बुद्धिमय जीवन को पवित्र जीवन कहते हैं । किन्तु गांधीजी के नैतिक ( अथवा दार्शनिक ) सिद्धान्त को एकांगी कहना अनुचित है । जीवन-सत्य को उन्होंने अपनी सहजबुद्धि से समझ लिया था । उनका नैतिक ज्ञान मानवीय वास्तविकता का ज्ञान है । वे भली-भाँति जानते थे कि नंगे तन और भूखे पेटवालों को नैतिक, सामाजिक और धार्मिक सदाचार का पाठ पढ़ाना पागलपन है । अतः उन्होंने खेत-खलिहानों की ओर ध्यान आकर्षित किया | ग्रामोद्योगों और पंचायत राज को महता दी। ग्रामीणों के स्वास्थ्य, आहार-विहार-सम्बन्धी स्वच्छता तथा अछूतोद्वार की ओर ध्यान दिया । इसी अभिप्राय से उन्होंने गांधी- सेवक संघ की स्थापना की । यह सब कोरा एकांगी सिद्धान्तवाद नहीं है । उन्होंने भारत की मिट्टी के कण-कण से अपने को परिचित किया और इस परिणाम पर पहुँचे कि भारत की असल आबादी या असल हिन्दुस्तान गाँवों में है । उन्होंने अपने अहिंसात्मक आर्थिक सिद्धान्त के आधार पर ग्रामोद्योगों के विकास के लिए प्रयत्न किया। लोगों से सादगी और ईमानदारी का जीवन व्यतीत करने को कहा ताकि लोग आत्मनिर्भर हो सकें और हमारी भूखी जनता का पेट भर सके । नैतिक पतन से बचने के लिए उन्होंने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आत्मनिग्रह का कठोर व्रत धारण कर जनता के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया । गुलाम भारतीयों को उन्होंने गुलामों को उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित न कर स्वतन्त्र होने पर स्वतन्त्र भारतवासियों को जन्म देने को कहा । भारत के असंख्य नंगे तथा भूखों को ध्यान में रखते हुए वे कहा करते थे कि इस देश में भूखा मरने के लिए सन्तान को उत्पन्न नहीं करना चाहिए । उन्होंने सदैव मानव स्वभाव की दुर्बलताओं को
३५६ / नीतिशास्त्र
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