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सम्बन्ध ध्येय से है और औचित्य-अनौचित्य का सम्बन्ध साधन से' । अत: उचित कर्म शुभ की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। सामान्य रूप से उचित कर्म वह है जिसे कि उपलब्ध ज्ञान के आधार पर सभी व्यक्ति उचित कहते हैं । किन्तु अधिकतर देखा गया है कि जिसे सब लोग अच्छा कहते हैं उसे व्यक्ति-विशेष अनुचित कहता है और जिसे व्यक्ति उचित कहता है उसे अन्य लोग अनुचित कहते हैं । ऐसी परिस्थिति आत्मगत और वस्तुगत प्रौचित्य के प्रश्न को उठाती है। स्थल रूप से व्यक्तिगत कल्याण के अनुरूप कर्म आत्मगत औचित्यवाले होते हैं और मानव-कल्याण के अनुरूप कर्म वस्तुगत औचित्यसम्पन्न हैं । क्या आत्मगत और वस्तुगत औचित्य में भेद है, या वे एक ही हैं ? नैतिकता वैयक्तिक शुभ और वास्तविक शुभ में भेद नहीं देखती है। वैयक्तिक दष्टि से वही शुभ है जो वास्तविक शुभ की प्राप्ति में सहायक है। वैसे आत्मगत औचित्य उसे कहते हैं जिसे कि कर्म करनेवाला व्यक्ति उचित समझता है और वस्तुगत औचित्य उसे जो कि वास्तव में शुभ की प्राप्ति में सहायक है। उचित कर्म को समझना कठिन कार्य है। अधिकतर कर्ता कर्म के जिस मार्ग को ग्रहण करता है उसके बारे में वह स्वयं ही अनिश्चित रहता है। जिस साधन को चुनते हैं क्या वह वास्तव में उचित है ? सम्यक वैश्व दृष्टिकोण से कौन-सा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है ? क्या जो आत्मगत रूप से उचित है वह सदैव ही वस्तुगत रूप से उचित रहेगा ? क्या सब कर्म आत्मगत रूप से उचित हैं ? क्या सब कर्म वस्तुगत रूप से उचित हैं ? क्या वह कर्म वास्तव में शुभ है जिसे व्यक्ति शुभ समझता है ? नैतिकता यह मानती है कि वास्तविक शुभ के अनुरूप कर्म आत्मगत और वस्तुगत रूप से उचित है। अत: आत्मगत और वस्तुगत औचित्य परस्परविरोधी नहीं हैं। फिर भी यदि यह प्रश्न करें कि क्या आत्मगत औचित्यवाला कर्म सदैव ही वस्तुगत रूप से उचित है तो कठिनाई उत्पन्न होती है । सुखवादियों और बुद्धिवादियों ने उचित कर्म की अपूर्ण व्याख्या की है। उदाहरणार्थ, बुद्धिवादियों ने कहा है कि ध्येय की पवित्रता कर्म के औचित्य को निर्धारित करती है। किन्तु ध्येय परिणाम से स्वतन्त्र नहीं है । इसी भाँति केवल परिणाम के आधार पर कर्म का औचित्य नहीं अाँका जा सकता। व्यापक ज्ञान की कमी, परिवेश और परिस्थिति का अज्ञान, क्षीण नैतिक
१ देखिए-भाग १, अध्याय । 2. Subjective and Objective rightness.
२८८ / नीतिशास्त्र
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