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ध्येय की प्राप्ति के लिए निम्न और स्वार्थी इच्छाओं का दिव्यीकरण आवश्यक है । ऐसा व्यक्ति धीर प्रकृति एवं सम-दृष्टि का व्यक्ति है। उसके लिए दुःखसुख, निन्दा-प्रशंसा और घृणा तथा स्नेह समान हैं । वह न तो शत्रु की निन्दा करता है और न मित्र की प्रशंसा। शम, दम, तप, सत्य, अहिंसा, दान, दृढ़संकल्प, करुणा, सन्तोष, विनम्रता, विश्वप्रेम प्रात्मोन्नति में सहायक हैं और हिंसा, अहंकार, राग, द्वेष, घृणा, लोभ, मोह, आत्मश्लाघा आदि आत्म-विनाशक हैं । अथवा गीता उन सभी प्रवृत्तियों को शभ कहती है जो नि:स्वार्थ भाव से लोकमंगल के लिए प्रयास करती हैं और भगवत्-प्राप्ति में सहायक हैं। इसके विपरीत वे प्रवृत्तियाँ जो कर्तुत्वभाव, अहंकार, स्वार्थ और कर्मफल की प्राशा करती हैं, अशुभ हैं।
कर्मवाद : स्वतन्त्रता का प्रश्न-गीता कर्मवाद को मानती है और यह कहती है कि पूर्वजन्म के संस्कार वर्तमान जीवन को निर्धारित करते हैं। पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही मनुष्य विशिष्ट जाति और कुल के वातावरण में जन्म लेता है तथा दुःख-सुख पाता है । तो क्या गीता के अनुसार मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है ? सब-कुछ पूर्वनिर्धारित और निश्चित है ? क्या गीता का कर्मवाद निराशावादी है ? क्या मुक्ति एवं मोक्ष के लिए प्रयास करना व्यर्थ है ? गीता का कर्मवाद आशावादी है ? वह हमारे सामने उज्जवल भविष्य रखता है। गीता आत्म-स्वातन्त्र्य में विश्वास रखने के कारण ही कर्मवाद को अपनाती है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है पर प्रत्येक कर्म फल से युक्त है । अतः उसे चाहिए कि सहजप्रवृत्तियों, आवेगों, उद्दाम इच्छाओं और संकीर्ण भावनाओं के प्रवाह में न बहे। समझ-बूझकर कर्म करे। बौद्धिक प्राणी होने के कारण वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । अशुभ कर्म का अशुभ परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। दुःख अशुभ कर्म का परिणाम है। अत: धीर व्यक्ति दुःख को अवश्यम्भावी मानता है। शुभ परिणाम के लिए शुभ करना अनिवार्य है। मनुष्य वर्तमान स्थिति से ऊपर उठकर अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक प्राणी के जीवन का ध्येय भगवत्-प्राप्ति है और इस ध्येय को पाने के लिए वह स्वतन्त्र है । आत्म-नियन्त्रित कर्मों द्वारा अथवा आन्तरिक सत्य के अनुरूप कर्म करने पर वह अपने इष्ट को प्राप्त कर सकता है । इस भाँति गीता कर्मवाद को महत्त्व देकर समझाती है कि व्यक्ति का भविष्य उसके हाथ में है अतः उसे अबौद्धिक और अनुचित कर्म नहीं करने चाहिए। नैतिक आचरण से एक क्षण के लिए भी मुक्ति सम्भव नहीं है। अपने नियतिवाद एवं कर्मवाद द्वारा एक
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