Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 345
________________ अर्जुन फल की चिन्ता करके कर्म को साधन मान लेता है और इसलिए उसका नीति-नीति का विवेक कुण्ठित हो जाता है । कर्म के आन्तरिक शुभत्व को समझना चाहिए | कर्म अपने-आपमें साध्य है । परिणाम को महत्त्व देकर गीता ने यह नहीं समझाया है कि कर्म परिणाम से युक्त नहीं है । वरन् यह कहा है कि परिणाम को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति आत्मस्वार्थ से ऊपर नहीं उठ सकता । वह शुभ को ध्येय मानने के बदले आत्मस्वार्थ को ध्येय मान लेता है | अतः परिणाम से तटस्थ रहकर ही व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठकर लोककल्याण की स्थापना करता है । वैराग्यवाद को स्वीकार - गीता ने अनासक्ति योग को महत्त्व देकर यह बतलाया कि मनुष्य को सदाचार के लिए स्वार्थ का त्याग करना चाहिए । शुभ ध्येय की प्राप्ति के लिए निम्न इच्छाओं का उन्नयन करके उनका दिव्यीकरण करना चाहिए । कुछ आलोचकों का यह कहना है कि गीता ने अनासक्ति योग एवं निष्काम कर्म को महत्त्व देकर वैराग्यवाद और कठोर संन्यासी-जीवन का यशगान किया है । गीता वैराग्यवाद को स्वीकार नहीं करती है, उसने मनुष्य की अनुभवात्मक आत्मा एवं जीवात्मा के स्वरूप को भलीभाँति समझा है । काण्ट की भाँति गीता अमनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाकर इच्छाओं का समूल नाश करने के लिए नहीं कहती बल्कि उनका दिव्यीकरण करने के लिए कहती है | इच्छा स्वेच्छाकृत कर्म का अनिवार्य अंग है । बिना इच्छा के कर्म सम्भव नहीं । इच्छाहीन जीवन अमानवीय, सारहीन और अनाकर्षक है । गीता यह कहती है कि केवल इन्द्रियसुख भोगविलास और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ बुरी हैं । वे आत्मघातक हैं और व्यक्ति को विषयान्ध बनाकर उसकी पूर्णता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं । इन इच्छाओं का उन्नयन करना अनिवार्य है । इन्हें सदाचार की इच्छा के अधीन होना चाहिए । सदाचारी इच्छा दिव्य है । सदाचार की प्रेरणा से कर्म करके व्यक्ति अद्वितीय प्रानन्द और पूर्णता को प्राप्त कर सकता है । व्यक्ति नगण्य नहीं है— गीता के अनुसार मनुष्य को अपने को समझना चाहिए | आत्मज्ञान बतलाता है कि भेदभाव मिथ्या है | अज्ञान भेदमूलक या द्वैतमूलक है । यही शत्रु मित्र, अपना-पराया, व्यक्ति समाज तथा स्वार्थ और परमार्थ के द्वैत के मूल में है । व्यक्ति की आत्मा विश्वात्मा है । अतः जब वह लोकहित और लोककल्याण के लिए प्रयास करता है तब वास्तव में वह अपनी संकीर्ण श्रात्मा का वास्तविक आत्मा के लिए त्याग करता है और ग्रात्मत्याग ३४४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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