Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 354
________________ गांधी-धर्म के अनुसार धार्मिक और अनैतिक' है । गांधीजी ने धर्म और नैतिकता को एक ही माना है । ये एक ही शाश्वत सत्य के दो स्वरूप हैं । दोनों में प्रभिन्नता है | अधार्मिक सिद्धान्त अनैतिक है । सब धर्म अपने विवेकसम्मत नैतिक रूप में ( रूढ़िबद्ध और संकीर्ण रूप में नहीं) समान तथा श्रद्धामूलक हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपना धर्म पालन करने के लिए स्वतन्त्र है । गांधीजी अपने को हिन्दू कहते थे, पर वे सब धर्मों का समान आदर करते थे । धर्मप्रचारकों के वे विरुद्ध थे। किसी भी मतावलम्बी को दूसरों के धर्म का उन्मूलन करने का तब तक अधिकार नहीं है जब तक कि उसका धर्म मौलिक मानवीय सदाचार के विरुद्ध न हो । अनासक्त योग' गांधीजी के धर्मप्रेम, सत्यप्रेम अथवा नैतिकता का एक महत्त्वपूर्ण अंग था । धर्म एवं मानव कल्याण की भावना ने ही उन्हें राजनीति में प्रवेश करने के लिए बाध्य कर समाज-सुधारक बनाया | रूढ़ि - रीतिग्रस्त, प्रधार्मिक नियमों का विद्रोही बनाया । हिन्दू धर्म के माथे से छुआछूत के कलंक के टीके को मिटानेवाला बनाया । धर्म के कारण ही उन्होंने हरिजन आन्दोलन को भारतीय स्वतन्त्रता के संग्राम का एक मुख्य अंग बनाया । अछूतों को हरिजन कहकर उन्होंने इस कथन की पुष्टि की कि 'जाति-पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई ।' गांधी-धर्म एक शिष्ट सदाचारपूर्ण मानव समाज का धर्म है । वह विवेकसम्मत धर्म है । उसकी नींव अन्धविश्वास पर नहीं, वह नैतिकता का ही दूसरा नाम है । शिक्षा - गांधीजी का कहना था कि बच्चों को राष्ट्र की आवश्यकताओं तथा प्रदर्शो के अनुसार शिक्षा देनी चाहिए | यूनिवर्सिटी की शिक्षा-पद्धति तथा उसके पाठ्य-क्रम से वह सन्तुष्ट न थे; क्योंकि वह हमारे नवयुवकों को १. 'जब यहाँ भी ईश्वर है, वहाँ पर भी ईश्वर है और ईश्वर तो एक ही हो सकता है तब दोनों अलग-अलग नाम लें और एक-दूसरे के नाम बर्दास्त न कर सकें, यह पागलपनसाही दीखता है ।' २. 'हिन्दू धर्म, जैसा उसे मैं समझता हूं, मुझे पूर्ण आत्म-सन्तोष देता है, मेरे समस्त अस्तित्व पूर्णता देता है और मुझे भगवद्गीता और उपनिषद से शान्ति मिलती है ।' ३. गीता की भाँति वे प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के समन्वय में विश्वास करते थे । समाज में रहकर निःसंग होकर काम करना चाहिए। ४ 'ऐसे व्यापक सत्यनारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए प्राणिमात्र के प्रति प्रात्मवत् (अपने समान) प्रेम की बड़ी भारी जरूरत है । यही कारण है कि मेरी सत्य की पूजा मुझे राजनीतिक क्षेत्र में घसीट ले गयी ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only गांधीजी / ३५३ www.jainelibrary.org

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