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आत्मबुद्धि और अर्पण बुद्धि निष्काम कर्म के लिए अनिवार्य - प्रर्जुन निष्पक्ष चिन्तन करने में असमर्थ है क्योंकि ममत्व के बोझ के कारण उसका हृदय क्लान्त हो गया है । वह हृदय की दुर्बलता के कारण मानसिक सन्तुलन( समत्व ) खो बैठा है और तटस्थ बुद्धि से कर्तव्य को समझने के बदले लाभहानि, जय-पराजय, अपना-पराया अथवा स्वार्थ और परिणाम के सम्बन्ध में सोचता है | भगवान ही परमकर्ता हैं तथा कर्म देह का गुण है । मनुष्य निमित्त मात्र है। कर्म का परिणाम दैवाधीन है । ऐसी स्थिति में परिणाम की चिन्ता अविवेकी ही करते हैं । विवेकी व्यक्ति फलासक्ति का त्याग करके निष्काम कर्म करता है । निष्काम कर्म के लिए दो बातें ग्रावश्यक हैं : आत्मशुद्धि तथा अर्पणबुद्धि | आत्मशुद्धि द्वारा गीता ने यह समझाया कि निम्न इच्छाओं का परिष्कार करना आवश्यक है । हमें अपने को संकीर्ण इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं के बन्धन से मुक्त करके कर्तव्य के मार्ग को अपनाना चाहिए | सब इच्छाएँ कर्तव्य के अधीन होनी चाहिए । मनुष्य प्राध्यात्मिक प्राणी है । उसके जीवन का ध्येय उच्च है, भगवत् - प्राप्ति है । इस ध्येय की प्राप्ति के लिए इच्छात्रों का उन्नयन अनिवार्य है । संकीर्ण इच्छात्रों से ऊपर उठकर प्रात्मशुद्धि द्वारा व्यक्ति अपने अन्तरतम की दिव्य ध्वनि को सुन सकता है । उस प्रादेश प्रथवा भगवत् संकल्प के अनुरूप कर्म करना ही व्यक्ति का कर्तव्य है । अतः श्रात्मशुद्ध अर्पण-बुद्धि को जाग्रत करती है । भगवान् ही हमारी वास्तविक प्रात्मा है । वह सब भूतों का प्रान्तरिक सत्य है । उन्हें पूर्ण श्रात्म-समर्पण कर देना चाहिए
वसुधैव कुटुम्बकम् : व्यक्ति और समाज- अर्पण-बुद्धि विश्वकल्याण की बुद्धि है । सर्वत्र एक ही सत्य की अभिव्यक्ति है । अतः भेद-भाव मिथ्या है । व्यक्ति और समाज एक ही हैं। दोनों में ही ईश्वर है । ईश्वर ही सब प्राणियों का प्रान्तरिक सत्य है | जब व्यक्ति भगवान् को पूर्ण श्रात्म-समर्पण कर देता है तब वह भगवद्-बुद्धि से जनता को जनार्दन मानकर उसकी सेवा करने लगता है । अत: समाज की सेवा करना भगवान् की सेवा करना है । सब प्राणियों में भगवान् को देखना अथवा एकता का बोध विश्वबन्धुत्व एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव का जनक है । जब दूसरों के लिए त्याग करते हैं तो यह नहीं समझना चाहिए कि हम दूसरों का उपकार कर रहे हैं । वे दूसरे नहीं हैं उनमें भी हमारी ही ग्रात्मा है । समाज सेवा द्वारा व्यक्ति संकीर्ण आत्मा से ऊपर उठकर विश्वात्मा को प्राप्त करता है । आत्मत्याग आत्मोन्नति है । गीता के अनुसार सर्वभूतों के हित के लिए कर्म करना चाहिए । लोकमंगल ही ध्येय है । इस
गीता / ३४१
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