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जैसे 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' इत्यादि । जब कर्म के सन्दर्भ में योग का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं तो योग से गीता का अभिप्राय 'युक्त' करने से है । अपने को सामाजिक यज्ञ कर्म अथवा कर्तव्य से युक्त करना ही कर्मयोग है । कर्मयोग के द्वारा गीता ने उन सभी सामाजिक कर्तव्यों को मान्यता दी है जिन्हें कि सब व्यवस्थित समाज स्वीकार करते हैं । जगत् और जीव एवं अनेकता को सत्य मानकर गीता ने कर्मयोग को महत्त्व दिया है। गीता के अनुसार जीव आत्मा और देह का योग है और कर्म देह एवं प्रकृति का गुण है । अतः जब तक देह है, कर्म भी है । कर्म से मुक्ति असम्भव है । कर्मयोग न्याय संगत और उचित है । कर्म से संन्यास लेना भ्रान्तिपूर्ण है । कर्म का त्याग करने के बदले हमें अपने को कर्ता समझने की भावना का तथा कर्मफल का त्याग करना चाहिए । कर्म देह का गुण है । शरीर मात्र ही कर्म करता है । व्यक्ति को निःसंग अथवा अनासक्त रहकर अपने को अकर्ता जानना चाहिए। भगवान् वास्तविक कर्ता है । वह सम्पूर्ण विश्व का संचालक है । कर्तव्य करने के लिए कर्ताभाव का त्याग आवश्यक है क्योंकि वह ग्रहंकारजन्य है । मनुष्य प्रविद्या और ग्रहंकार के कारण सोचता है कि मैंने अपने शत्रु को पराजित किया प्रथवा मैंने यह किया, वह किया । वास्तव में भगवान् ही सब कुछ करवाते हैं । मनुष्य तो निमित्त मात्र है । अर्पण-बुद्धि एवं भगवत् संकल्प से अपने संकल्प को युक्त करके कर्म करना चाहिए | निष्क्रियता और अकर्म के लिए उस जीवन में स्थान नहीं है जो कि श्राध्यात्मिक है। अकर्मण्यता प्राध्यात्मिक ज्ञान और स्वतन्त्रता ( बन्धन से मुक्ति) का सूचक नहीं है । कर्तृत्वभाव और फलेच्छा बन्धन में डालती है । निष्काम कर्म को अपनाकर बन्धन से मुक्त हो सकते हैं । कर्मत्याग एवं अकर्म
वांछनीय है । सम्यक् एवं सत्य ज्ञान मनुष्य को कर्म से युक्त करता है । वह विश्व के प्रार्त प्राणियों के कल्याण के लिए प्रयास करता है और सामाजिक कर्म से विमुख नहीं होता है । ऐसा नि:वार्थ कर्म बन्धन में नहीं डालता । कर्म करने मात्र से दोष नहीं लगता है | स्वार्थी इच्छाएँ और निम्न प्रेरणाएँ कर्म को दोषयुक्त करती हैं । इनके ऊपर उठकर शुभ कर्म करने चाहिए। कर्म का त्याग अथवा कर्मसंन्यास ग्रहण करने से अधिक वांछनीय और श्रेयस्कर निष्काम कर्म है |
fasara कर्म : प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का समन्वय - गीता के नैतिक सिद्धान्त का केन्द्रबिन्दु कर्मफलत्याग एवं निष्काम कर्म है । यह वह सेतु है जो
गीता / ३३९
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