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सहायक है । गीता
है कि अधिकांश व्यक्ति अज्ञानवश संसार में दुःख भोगते हैं । अपने ध्येय और कर्मपथ को समझने में समर्थ होने के कारण वे भटकते रहते हैं । गीता ने एक ऐसे विश्वव्यापी, सार्वभौम और शाश्वत सन्देश को दिया है जो देश, काल, परिस्थिति तथा राष्ट्र, जाति, वर्ण के भेद से अछूता है । वह सभी नैतिक जिज्ञासुत्रों को उस ग्रान्तरिक मार्ग का ज्ञान देती है जो भगवत् - प्राप्ति में ने कर्म का सन्देश दिया और यह सन्देश जीवन के दर्शन पर आधारित है । तात्त्विक सत्य का ज्ञान ही कर्म की ओर ले जाता है। गीता ने ब्रह्मविद्या और योग शास्त्र दोनों को समान माना है । जीवन का तात्त्विक रूप हमें कर्म का आदेश देता है । कर्म एवं कर्तव्य द्वारा हम जीवन की समस्याओं को सुलझाकर उनके स्वामी बन जाते हैं। गीता ने नैतिक समस्या - कर्तव्य को कृष्ण और अर्जुन के वार्तालाप द्वारा समझाया है ।
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कृष्ण तथा अर्जुन का व्यक्तित्व - महाभारत कृष्ण के ऐतिहासिक व्यक्तित्व एवं वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करता है और साथ ही उनकी अवतार के रूप में पूजा करता है । किन्तु इतिहास कृष्ण के वास्तविक अस्तित्व को सिद्ध करने में अभी तक असमर्थ है । ऐतिहासिक दृष्टि से कृष्ण पौराणिक नायक हैं । महाभारत के अनुसार अर्जुन कुन्ती के पुत्र हैं । वे अपने अधिकार, धर्म और सत्य की रक्षा के लिए युद्ध-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । गीता के अनुसार अर्जुन वह व्यक्ति है जो ज्ञान और हृदय की दुर्बलता के कारण मानसिक संघर्ष की स्थिति में पड़ा है तथा कर्तव्य एवं सदाचार के मार्ग को निर्धारित करने में असमर्थ है ।
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नैतिक समस्या और उसका समाधान - युद्ध का रूपक लेकर गीताकार ने कर्तव्याकर्तव्य के प्रश्नों को उठाया है । यह जीवन धर्म-क्षेत्र है इसलिए सदाचार का मार्ग ही एकमात्र वांछनीय मार्ग है । सदाचार का क्या अर्थ है ? जीवन का ध्येय क्या है ? क्या युद्ध उचित है ? क्या अपनों का हनन करके विजयी होना न्यायसंगत है ?
अर्जुन का मन अस्थिर और दु:खी है । ममत्व, भावावेश और क्लीवता ने उसके विवेक को कुण्ठित कर दिया है । क्षात्र धर्म और अग्रजों का प्रदेश उसे युद्ध करने के लिए प्रेरित करता है किन्तु उसका प्रज्ञान उसे दुविधा में डाल देता है | वह अनेक तर्क-वितर्क करता है । यदि युद्ध में पराजय प्राप्त हुई तब क्या होगा ? यदि स्वजनों का हनन करके विजय भी मिली तो उसमें ही क्या सुख होगा ? ऐने तर्क उसे कर्तव्य - विमूढ़ बना देते हैं । वह बारम्बार इस पर विचार करता है कि क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित । अन्त में
गीता / ३३७
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