Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

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Page 339
________________ वह श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है कि मैं क्या करूँ ? श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि कर्तव्य का मार्ग स्वार्थ, ममत्व और भावना के मार्ग से भिन्न और श्रेष्ठ है। अपने ऐसे कथन के प्रतिपादन के लिए वे अनेक युक्तियाँ देते हैं। उदाहरणार्थ, वे कहते हैं कि सर्वत्र एक ही सत्य की अभिव्यक्ति है । व्यक्ति और विश्व एक ही सत्य के अंश हैं। प्रतः सर्वभूतों में एक ही सत्य व्याप्त है। इसलिए सत्य के लिए युद्ध करने में विमुख नहीं होना चाहिए। भगवत-प्राप्ति के लिए सदाचार अनिवार्य है। यदि युद्ध एवं ध्वंस सदाचार के लिए आवश्यक है तो उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। परिणाम की चिन्ता नहीं करनी चाहिए और यदि अर्जुन यह सोचता है कि वह युद्ध द्वारा आत्मजों का हनन करेगा तो वह भ्रम में है । मनुष्य का प्रान्तरिक रूप नित्य सत्य है । आत्मा अमर है, 'जल उसे भिगो नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती और अस्त्र छेद नहीं सकते।' इसलिए यह सोचना व्यर्थ है कि हम किसी का हनन करते हैं अथवा किसी का हनन हो सकता है । स्वधर्म को छोड़ा अनुचित है। अर्जन क्षत्रिय है। क्षत्रिय का धर्म राज्य तथा समाज के कल्याण के लिए युद्ध करना है। यदि वह युद्धपराङमुख होगा तो उसके परिवार तथा समाज के लोग उसे कायर समझकर उसका अपमान करेंगे। कर्म, अकर्म का प्रश्न-गीता यह समझाने का प्रयास करती है कि अपनी चेतना के उच्चतर स्तर में रहकर भी व्यक्ति कर्म कर सकता है। इसीलिए उसने सदाचार के प्रश्न को उठाकर कर्तव्य का सन्देश दिया है। कर्तव्य के सन्देश के मूल में जगत् की सत्यता की धारणा है । गीता अकर्म एवं कर्मत्याग या कर्मसंन्यास को स्वीकार नहीं करती है। वह आत्मशुद्धि के द्वारा प्राध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति बतलाती है और आध्यात्मिक ज्ञान उचित कर्म की प्रेरणा देता है। अतः गीता ने ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र को एक ही माना है । गीता कर्मयोग की स्थापना करती है। ___ कर्म का सन्देश देने के लिए गीताकार ने कृष्ण के मुख से यह कहलाया है कि 'जब-जब धर्म का ह्रास होता और अधर्म का विकास होता है तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।' जब स्वयं कृष्ण, जो कि पूर्णकाम हैं, सदाचार की स्थापना के लिा कर्म करते हैं तो मनुष्य अकर्म को कैसे अपना सकता है ? यह अवश्य है कि मनुष्य को कर्म सदैव धर्म या सदाचार के लिए करने चाहिए, न कि स्वार्थसिद्धि अथवा स्वर्ग और धन की कामना से प्रेरित होकर । कर्मयोग और कर्मसंन्यास-गीता में योग की अनेक व्याख्याएँ मिलती हैं. ३३८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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