Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 337
________________ २४ गीता रचनाकाल और रचयिता-गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है । इसके रचनाकाल के बारे में विद्वानों में मतभेद है। इसका काल १०० ई० पू० से लेकर ५०० ई० पू० के बीच माना जाता है। इसके रचयिता के बारे में भी हमारा ज्ञान सन्दिग्ध है। धार्मिक आस्था व्यास को इसका रचयिता मानती है जो कि महाभारत, भागवत आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता माने जाते हैं। गीता की समन्वयात्मक दृष्टि-गीता के दर्शन को समझाने के लिए यह कहा जाता है कि गीता उपनिषदों का सार है। कृष्ण दुहनेवाले हैं; अर्जुन बछड़ा है; उपनिषद् गायें हैं । यदि ज्ञानी व्यक्ति चाहे तो अमृत सदृश गीता के उत्तम दूध का पान कर सकता है। यह उपमा सत्यांश युक्त है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि गीता केवल उपनिषद् है। गीता की दृष्टि समन्वयात्मक है। उसका क्षेत्र सर्वग्राही है और सन्देश व्यापक है। उसने विभिन्न सिद्धान्तों और प्रचलित मान्यताओं के सार को ग्रहण करके उन्हें व्यवस्थित और आकर्षक रूप दिया है। वेद, उपनिषद, श्रीमद्भागवत् एवं वैष्णव धर्म, सांख्य, योग, एकवाद आदि के बीच उसने संगति स्थापित की और साथ ही प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का निष्काम कर्म के रूप में समन्वय किया । अतः यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि गीता ने किसी सिद्धान्त-विशेष का ताकिक और दार्शनिक रूप से प्रतिपादन किया। ___ नैतिक मूल्य-गीता का ध्येय किसी ऐसे गुह्य ज्ञान को देना नहीं है जिसे कि इने-गिने लोग ही समझ सकते हैं बल्कि एक ऐसे सरल और सुगम सन्देश को देना है जो कि मानवता के लिए हितकर है । गीता यह भली-भाँति समझती ३३६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372