________________
के कष्ट - सहिष्णुता, त्याग और कठोर वैराग्य के बदले चार्वाक ने अनियन्त्रित प्राणशक्ति का सिद्धान्त दिया । सब प्रकार के आदेशों के प्रति उन्होंने ग्रात्म दृढ़ता के साथ सम्मान और प्रगल्भता व्यक्त की है। सार्वभौम परोपकारिता, प्रेम और आत्म-संयम के लिए जीवन में स्थान नहीं है । मनुष्य ने काम प्रवृत्ति को प्रकृति से दाय-रूप में प्राप्त किया है । इसकी तृप्ति ही परम ध्येय है । इस प्रकार हम देखते हैं कि चार्वाक ने ढीठ हठधर्मी के साथ मानव जगत् को उसकी समस्त मान्यताओं से दूर कर दिया । ईश्वर पर विश्वास और परलोक की धारणा को दुर्बलता, कायरता, मिथ्याचार और धूर्तता का चिह्न कहा । मनुष्य की नैतिक प्रकृति को अनैतिक प्रकृति का सन्देश दिया ।
अन्तर्निहित सत्य - दुर्बलताओं और सीमाओं से घिरे होने पर भी चार्वाक - दर्शन सत्यांश से युक्त है । वैराग्यवाद को श्मशान की निद्रा से जगाने के लिए इन्द्रियपरक आत्मा की तीव्र और लालसा भरी पुकार आवश्यक है। उपनिषदों - के त्याग, वैराग्य और संन्यास के गीत आत्मा के मूर्त व्यक्तित्व से दूर होते जा रहे थे । एक ऐसी धारणा की आवश्यकता थी जो कि भावना के समानाधिकार को सम्मुख रख सके । बुद्धि के एकाधिपत्य के समान्तर में भावना के एकाधिपत्य को खड़ा करके यह बतला सके कि किसी के भी अधिकार को छीन नहीं सकते हैं ।
चार्वाक-विचारधारा भारतीय दर्शन के व्यापक दृष्टिकोण और उदार चेतना को समझाती है । वह बतलाती है कि भारतीय दर्शन संन्यासवाद तक ही सीमित नहीं है, उसमें सभी प्रकार के विचार मिलते हैं । निम्न से निम्न और उच्च से उच्च विचार व्यक्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र है । चार्वाक दर्शन मनुष्य की स्वतन्त्रता की चेतना के जागरण का सूचक है । संकीर्ण धर्म, जादू-टोना, परम्परा, चमत्कारवाद, रूढ़िवाद तथा बाह्यादेशों का खण्डन करके इस दर्शन ने स्वतन्त्र विचार और विद्रोह की उस लहर को जन्म दिया जो कि श्राध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है । इसने यह समझाया कि उसी सत्य को स्वीकार करना चाहिए जिसका अनुमोदन बुद्धि करती है । निःसन्देह चार्वाक दर्शन के मूल में सन्देहवाद और अज्ञेयवाद मिलता है किन्तु यह प्रगति के शिखर का अनिवार्य सोपान है । जब एक विचारधारा रूढ़िग्रस्त और एकांगी हो जाती है तो उसका विकास रुक जाता है। विकास की प्रगति के लिए सन्देहवाद एवं संशयवाद अत्यन्त श्रावश्यक है । चार्वाक ने भविष्य को अज्ञेय कहकर और प्रत्यक्ष को ही सत्य का मानदण्ड मानकर उन संख्य
३३४ / नीतिशास्त्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org