Book Title: Nitishastra
Author(s): Shanti Joshi
Publisher: Rajkamal Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ है । इस आधार पर चार्वाक ने त्याग और परहित की धारणाओं को अवांछनीय कहा । ऐसा स्थूल उपयोगितावादी दृष्टिकोण नैतिक और आध्यात्मिक मान्यताओं, योग और साधना तथा सदाचार और संयम का विरोधी है। कुछ देर के लिए यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि कभी भी मानवोचित स्तर एवं बौद्धिक धरातल पर एक ऐसे सम्प्रदाय का अस्तित्व रहा जिसने कि स्वेच्छा से सुख के लालच में पशुजीवन को अपना लिया । यदि यह मान भी लें कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं रहता तो भी क्या यह कहना मानव-गौरव के अनुकूल होगा कि इन्द्रिय-सम्भोग ही एकमात्र सत्य है । आत्म-प्रबुद्ध प्राणी उस धरातल पर सदैव नहीं रह सकता है जिससे कि वह ऊपर उठ पाया है। प्रात्मत्याग और आत्म-संयम की पुकार उसकी उस आत्मा की पुकार है जो कि अपनी ही पशु-प्रवृत्तियों से ऊब गयी है। इसमें भी सन्देह नहीं है कि भोगवादी विचारधारा कठोर वैराग्यवाद की पूरक है किन्तु प्रात्मरति का ऐसा उच्छखल, मुक्त और वीभत्स गान मनुष्य के लिए असह्य हो जाता है। आलोचकों ने अपनी असहनशीलता और घणा को व्यक्त करने के लिए ही चार्वाक को सन्देहवादी, संशयवादी, नास्तिक-शिरोमणि, धर्मनिन्दक और भोगवादी कहा है। अनैतिक-यह भी विवादपूर्ण है कि आलोचकों ने चार्वाक-दर्शन को जितना निम्न और हेय दिखलाया है क्या वह वास्तव में वैसा ही था। यह सम्भव है कि आलोचना के आवेश में उन्होंने अतिशयोक्ति को अपना लिया हो। किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि चार्वाक-दर्शन जिस कट और तीव्र आलोचना का विषय बन गया है उसका कारण उसी की आन्तरिक दुर्बलता है। अपने व्यावहारिक पक्ष में उसने सामाजिक व्यवस्था और नैतिक दायित्व को समूल नष्ट करना चाहा। यह न तो उस भगवान् को मानता है जो विश्व में सदाचार की स्थापना के लिए जन्म लेता है या नैतिक व्यवस्था का संचालक है और न उस आन्तरिक बोध या ध्वनि को जो सदाचार के मार्ग पर चलाती है। यह सदाचार के मूल आधारों और मान्यताओं-पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, ईश्वर का अस्तित्व, कर्मवाद—को तिरस्कृत करके उन्हें असत्य कहता है । श्रेष्ठ नैतिक जीवन से मनुष्य को स्खलित करके उसे इन्द्रिय-सम्भोग की ओर ले जाना वह अपना श्लाघनीय ध्येय मानता है। इन्द्रिय-सम्भोगवाद परहित की छाया से भी दूर रहना चाहता है । उस सामान्य शुभ की स्थापना भी नहीं करना चाहता जिसके अधीन मनुष्य का स्वार्थ है । इसके अनुसार यदि सामूहिक सुख है तो वह व्यक्तियों के सुख द्वारा ही व्यक्त होता है । उपनिषदों चार्वाक-दर्शन | ३३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372