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समस्याओं और कठिनाइयों को उपस्थित कर दिया जिनको समझने और सुलझाने में विरोधी दर्शनों का दृष्टिकोण अधिक व्यापक हो गया । चार्वाक - दर्शन की अपूर्णता, सांसारिकता और घोर इन्द्रियता ने अन्य दार्शनिकों को प्रेरित किया कि वे अपने दर्शन का नीर-क्षीर विवेचन करके तथा पुष्ट तार्किक प्रमाण देकर उसकी पूर्णता स्थापित करें | विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का अध्ययन यह बतलाता है कि अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता को स्थापित करने के लिए भारतीय दार्शनिकों ने चार्वाक दर्शन को असत्य सिद्ध करना अपना प्रमुख लक्ष्य
माना ।
श्रमान्य और अवांछनीय दर्शन - उपर्युक्त सत्यांश होने पर भी चार्वाक - दर्शन का मान्य और वांछनीय सिद्धान्त के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं । चार्वाक ने समझाया कि नैतिक नियम प्रचलन मात्र है । प्रचलनों का अन्धानुकरण करने के आवेश में हमें मुख्य ध्येय को नहीं भूलना चाहिए । जब हम प्रश्न करते हैं कि बौद्धिक प्राणी के लिए वह ध्येय क्या है जिसका निरन्तर स्मरण आवश्यक है तो हमें उत्तर मिलता है कि जीवन का अभीप्सित ध्येय काम है । व्रत, संयम, नियम, त्याग, सार्वभौम परोपकारिता आदि छूछी मान्यताएँ हैं । मनुष्य स्वतन्त्र है । वह इन्द्रिय- सम्भोग का अधिकारी है । अतः चार्वाक आत्म-त्याग के बदले आत्म- रति की धारणा देते हैं । जिस वैयक्तिक स्वतन्त्रता और काम-वासना को चार्वाक ने महत्त्व दिया है वह मनोवैज्ञानिक, जैव, नैतिक तथा सामाजिक दृष्टि से घातक है । जीवन के तथ्य बतलाते हैं कि ऐसा व्यक्ति सामाजिक हित की हत्या करने के साथ ही अपनी हत्या भी करता है । वह आत्मघाती है क्योंकि नैतिकता के बदले पशुत्व को स्वीकार करता है ।
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चार्वाक दर्शन / ३३५.
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