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- सर्वोच्च शाश्वत मूल्य (भगवान्) पर निर्भर है जिसमें कि सत्य, सौन्दर्य और शिव परिपूर्णता प्राप्त कर चरितार्थ होते हैं ।
शुभ, नैतिक शुभ और परम शुभ-शुभ वह है जिसका नैतिक मूल्य है । इसका प्रयोग साधन और साध्य दोनों अर्थों में होता है । शुभ व्यक्ति वह है जो वास्तविक मूल्यों की उन्नति के लिए, चाहे वह साधन रूप में हों या साध्य रूप में, अपनी क्षमता के अनुरूप सतत प्रयत्नशील है । नैतिक मूल्यों की वृद्धि नैतिक शुभ की वृद्धि है और नैतिक शुभ परम शुभ की अपेक्षा रखता है । परम शुभ वह है जो बौद्धिक प्राणी को पूर्ण सन्तोष देता है यद्यपि साथ ही यह भी सत्य है कि परम शुभ की प्राप्ति दुर्लभ है । परम शुभ को उस व्यवस्थित बौद्धिक विधान के रूप में समझने पर, जोकि बौद्धिक व्यक्ति को सन्तोष देता है, प्रश्न उठता है कि क्या परम शुभ की ऐसी धारणा वास्तविक है ? ऐसा प्रश्न हमें तत्त्वदर्शन की ओर ले जाता है । तात्विक कठिनाइयों में न जाकर इतना समझ लेना पर्याप्त होगा कि नैतिक शुभ एवं नैतिक मूल्य इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य वर्तमान स्थिति से उत्पन्न असन्तोष के कारण अपना यह कर्तव्य समझता है कि वह स्वेच्छा से उस मार्ग को चुने जिसकी प्राप्ति उसे सन्तोष देगी । ऐसी सन्तोष की स्थिति एवं नैतिक शुभ की प्राप्ति तथा साक्षात्कार के लिए व्यक्ति सदैव प्रयास करता है । वर्तमान असन्तोष उसे इस स्थिति की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है । वह नैतिक शुभ का स्वतन्त्रतापूर्वक वरण करके उस पूर्णता की स्थिति को प्राप्त करना चाहता है जहाँ दुख, असन्तोष और पाप नहीं है । यही पूर्ण शुभ, पूर्ण कल्याण और पूर्ण सौन्दर्य की स्थिति है । ऐसे शुभ का चयन करना और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना नैतिक शुभ है । अतः नैतिक शुभ सामान्य शुभ से भिन्न है । सामान्य तौर से उस वस्तु को शुभ कहते हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को सन्तोष देती है । किन्तु नैतिक शुभ पूर्णता की धारणा पर आधारित है । वह अपने आप में शुभ है चाहे वह व्यक्ति को सन्तोष दे या न दें । वह चाहे व्यक्ति के लिए सुखद हो या दुःखद, वह शुभ है । यदि यह मान लें कि नैतिक शुभ व्यक्ति को सुख देता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि नैतिक शुभ का शुभत्व उसके सुखद होने पर निर्भर है, क्योंकि नैतिक शुभ के लिए व्यक्ति सहर्ष दुःख स्वीकार करता है ।
शुभ और औचित्य - प्रात्मगत और वस्तुगत औचित्य - शुभ-अशुभ का
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मूल्यवाद / २८७
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