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तरसते रहे । उनका जीवन मित्रों तथा बन्धुप्रों से हीन था। बौद्धिक समानता तथा बौद्धिक मित्रता का अानन्द न उठा सकने के कारण उनके अतिमानव का सिद्धान्त विषैले डंक के समान हो गया । यहाँ पर यह कहना आवश्यक होगा कि उनके जीवन के कट क्षणों तथा दारुण अनुभूतियों के लिए केवल परिस्थितियों को ही दोष देना अनुचित है। विधाता ने उन्हें इतना स्वाभिमानी, उच्चाभिलापी तथा कुतर्की बनाया कि उन्हें प्राजन्म अकेला ही रहना पड़ा। जीवन के एकाकीपन के साथ मनचाही ख्याति की कमी उनके लिए असह्य हो गयी। उनकी पुस्तकें उनके जीवन की कटुतापूर्ण विषम मनःस्थिति की द्योतक हैं। अपनी पुस्तक 'एंटी क्राइस्ट' (Anti Christ) में उन्होंने ईसाई धर्म का बुरी तरह से खण्डन किया। उनकी अन्तिम पुस्तक 'एक्के होमो' (Ecce Homo)-जो कि एक प्रकार से उनकी आत्मकथा है-में कई भाव ऐसे हैं जो उनकी प्रगल्भता तथा मानसिक प्रतिभावना के उदाहरण हैं । यह पुस्तक अत्यन्त अपसामान्य है।
अतिमानव का सिद्धान्त-नीत्से को डारविन के दर्शन की पीठिका में सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। डारविन के अनुसार योग्यतम की ही जीवन
१. देखिए-Thus Spake Zarathustra, In Beyond Good & Evil, The
Will to Power. २. उनका कहना था कि मनुष्य में सम्भावित शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों को वास्तविकता
देकर वह अतिमानवीय व्यक्तित्व प्राप्त कर सकता है । अतिमानवीय व्यक्तित्व से उनका अभिप्राय उस नृशंसता तथा निर्ममता से है जो दूसरों पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहती है। अतिमानव अपने सूख के लिए मानवता का रक्त पीता है तथा पडोसी
के शव पर खड़ा होकर अट्टहास करता है । ३. उनकी बहिन ने उनका प्राजन्म साय दिया। किन्तु उससे उन्हें विशेष सान्त्वना न मिल
सकी। ४. उसके कुछ परिच्छेदों के शीर्षक ये हैं : 'Why I am so wise', 'Why I write such excellent books',
Why I am so clever', आदि । ५ नीत्से ने स्वयं अपने मत को डारविन के विरुद्ध कहा । उसका कहना था कि मैंने 'जीवन
संघर्ष' के बदले 'शक्ति-संघर्ष' (Struggle for pover) माना है। डारविन के अनसार प्रकृति का मल नियम जीवन-संघर्ष है। प्राणी जीवित रहना चाहता है, उसमें जीवित रहने की सक्रिय इच्छा है। जीवित रहने के लिए उसे संघर्ष करना पडता है और विकास-क्रम में योग्यतम की ही जीवन विजय होती है। नीत्से उसके विरुद्ध कहता है कि इच्छाशक्ति जीवित रहने के लिए नहीं, शक्तिशाली बनने के लिए है। 'अस्तित्व की इच्छा' के सिद्धान्त को माननेवालों ने जीवनसत्य को नहीं समझा। इच्छा जीवित रहने के लिए नहीं है; किन्तु अबाध रूप से प्रभुत्वप्राप्ति के लिए अथवा विजयी होने के लिए है । विजयी होने एवं प्रभुत्वप्राप्त करने की इच्छाशक्ति मौलिक और नैतिक इच्छा है।
३०८ / नीतिशास्त्र
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