________________
लिए अनाकर्षक और नीरस था । शुद्ध बुद्धिमय जीवन एवं कोरे ज्ञान और अमूर्त सत्य की प्राप्ति के लिए जीवन की उपेक्षा करना जनसामान्य के लिए असह्य हो गया । अतः लुके - छिपे रूप में उन्होंने भोगवाद को महत्त्व देना प्रारम्भ कर दिया । चार्वाक विचारकों का सुसंघटित सम्प्रदाय रहा हो ऐसा नहीं दीखता है । चार्वाक दर्शन अपने सारांश में यह है : लोकायत एकमात्र शास्त्र है; उसके अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । चार भूत हैं : पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु | धन और भोग मानव अस्तित्व के विषय हैं । जड़ द्रव्य चिन्तन कर सकता है । परलोक की धारणा मिथ्या है । मृत्यु सबका अन्त है |
धर्म की कटु आलोचना - चार्वाकों ने वैदिक प्रदेश और पुरोहित वर्ग के विरुद्ध अपने मत का प्रतिपादन किया । परात्परवाद, प्रतीन्द्रियवाद तथा चमत्कारवाद की धारणाओं के साथ ही उन सभी धारणाओं का खण्डन किया जो कि दर्शन, धर्म तथा नैतिकता के मूल आधार हैं । प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानकर उन्होंने ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग की धारणा का उपहास किया और कहा कि आध्यात्मिक जीवन एवं चेतना के उच्च स्तर में रहने के बदले भौतिक जगत् के भोग-विलास के स्तर पर रहना चाहिए । विशुद्ध सुखवाद का प्रतिपादन करके उन्होंने वैयक्तिक सुख को ही जीवन का ध्येय बतलाया । धार्मिक और नैतिक विश्वासों से अपने को मुक्त करके उन्होंने पुरोहितों के एकाधिकार को छीन लिया । धर्म से अपने को मुक्त करने के प्रयास में वे जड़वाद के एकांगी शिखर पर पहुँच गये । धर्मशिक्षकों, वैदिक पुस्तकों तथा यज्ञ एवं शास्त्रविधियों के वे पूर्ण विरोधी थे । उनका कहना था कि वैदिक पुस्तकों में पुनरुक्ति, आत्म-विरोध और असत्य मिलता है । यदि हम स्वर्ग और नरक की धारा को समझने का प्रयास करें तो मालूम होगा कि वे धारणाएँ मिथ्या हैं । परलोक का विचार छलपूर्ण है । इस जगत् के अतिरिक्त अन्य कोई जगत् नहीं है । जगत् के मूल में ईश्वर की सत्ता को मानना अनावश्यक है । जड़भूतों के संयोग से जगत् की उत्पत्ति हुई है । पाखण्डियों और धूर्तों ने अपने स्वार्थ के कारण इन धारणाओं को जन्म दिया और इनका प्रचार किया । धर्म एक मूर्खतापूर्ण भ्रान्ति है, यह मानसिक रोग है । पण्डित और पुरोहित वर्ग ने धन की लिप्सा एवं व्यावसायिक लाभ को सम्मुख रखकर आचरण के नियमों को बनाया है । उन्होंने अपने जीविकोपार्जन के लिए नरक का भय तथा मुक्ति और स्वर्ग का प्रलोभन दिया है । अथवा चार्वाक कहते हैं: यदि बलि का पशु सीधे स्वर्ण पहुँच जाता है तो यजमान अपने ही पिता की बलि क्यों
चार्वाक दर्शन / ३२ε
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org