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अध्ययन बतलाया है कि श्रमिक शक्ति का क्रय करनेवाले अत्यन्त निष्ठुर और निर्मम रहे हैं । उन्होंने सदैव श्रमिकों का शोषण किया । अपनी सुविधा और लाभ के अनुसार नियम बनाये। जिन नियमों को समाज शुभ और उपयोगी कहता है वे केवल धनिकों के सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य के लिए हैं । धनिकों ने sus और आर्थिक शक्ति के बल पर उन सामाजिक नियमों की स्थापना की है जो शोषित वर्ग के हित से दूर हैं। अपने हित को सम्मुख रखकर धनिकों ने कर्तव्य और अधिकारों को निश्चित किया है । नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियम अपने मूल में अधिकारी वर्ग और श्रमिकों के सम्बन्ध के सूचक हैं । जिसे हम सामाजिक नैतिकता कहते हैं वह वर्ग नैतिकता है । सामाजिक नैतिकता का स्वरूप बतलाता है कि शोषकवर्ग के बनाये नियम सर्वसाधारण के लाभ के लिए नहीं हैं वरन् स्वयं उन्हीं के लाभ के लिए हैं । मार्क्स अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर यह भी कहता है कि प्रत्येक समाज में उसके विरोधी कीटाणु रहते हैं । यदि पूँजीवाद को लें तो हम देखेंगे कि पूँजीपति श्रमिकों की श्रम-शक्ति कम-से-कम मूल्य में खरीदते हैं । सर्वहारावर्ग अपनी आवश्यकताओं की भूख के कारण और पूंजीपति अपने स्वामित्व तथा धनं- लालसा के कारण एक-दूसरे के कट्टर विरोधी होते जा रहे हैं । मार्क्स का कहना था कि पूँजीवाद का यह प्रान्त - रिक विरोध उसी का विनाश करके साँस लेगा ।
प्रार्थिक व्यवस्था विभिन्न विचारों की जन्मदात्री - जो वस्तुनों के अधिकारी एवं धनी हैं उनके हाथों में ही राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक शक्ति है । वे अपनी आवश्यकता और सुविधानुसार नियमों को बनाते, बिगाड़ते और बदलते रहते हैं | मनुष्य के बनाये नियमों का मूल प्रेरणास्रोत मनुष्य और वस्तुत्रों के बीच का सम्बन्ध है । आर्थिक व्यवस्था ही विभिन्न विचारों की जन्मदात्री है | इतिहास के क्रम और भौतिक घटनाओं को कच्चे माल की प्राप्ति, उत्पादन -यन्त्रों का आविष्कार तथा जलवायु सम्बन्धी भौगोलिक परिवर्तन निर्धारित करते हैं, न कि मनुष्यों के संकल्प और विचार । ग्रतः प्रार्थिक परिवर्तन ही इतिहास को बनाते हैं। मनुष्य और वस्तु सम्बन्ध के अनुसार ही विभिन्न नियमों, विचारों और धारणाओं में परिवर्तन हुआ है । मनुष्य की प्रतिभा और विचार, उसकी सृजन-शक्ति, मनः-शक्ति और इच्छाएँ जो कुछ भी करती हैं वह भौतिक आवश्यकतात्रों से बाध्य होकर । यह कहना भ्रान्तिपूर्ण है कि विचार अपने आप में स्वतंन्त्र है और मनुष्य का मानस आविष्कार और सृजन कर सकता है : यदि मानव मस्तिष्क की क्रियानों को उचित रूप से
कार्ल मार्क्स / २९७
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