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मूल्य की समस्या-यदि मूल्य के आधार पर नैतिकता अथवा आचरण के शुभन्व को समझा जाता है तो मूल्य से हमारा क्या अभिप्राय है ? जीवन में उसका क्या स्थान है ? मानस के किसी भी सिद्धान्त, विचार और धारणा को मूल्य का रूप नहीं दे सकते हैं। यदि व्यक्ति किसी सामाजिक प्रचलन के अनुरूप कर्म करता है और सामाजिक दृष्टि से उसका आचरण शुभ है तो नैतिक दृष्टि से उसके आचरण को मल्य नहीं कहा जा सकता। मूल्य उस सत्य को कह सकते हैं जिसके लिए व्यक्ति या समाज जीवित रहता है और जिसके लिए आवश्यकता पड़ने पर वह संघर्ष करने, दुःख सहने तथा मृत्यु को स्वीकार करने के लिए भी तत्पर है।
मूल्य का आर्थिक प्रयोग-जीवन की आवश्यकताओं ने 'मूल्य' को आर्थिक रूप दिया। सर्वसामान्य के जीवन में मल्य अपने आर्थिक रूप में ही प्रयोग में प्राता है। मूल्य के साथ ही उन्हें पैसों का ध्यान आता है, अथवा, वे उस वस्तु को मूल्यवान् मानते हैं जो कि इच्छाओं की तृप्ति करती है। क्षधा के कारण भोजन एवं खाद्य पदार्थों को और जीवन की कठिनाइयों के कारण निवास और वस्त्र को मूल्यवान् समझा जाता है। जनसामान्य के लिए वे वस्तुएँ और विषय मूल्यवान् हैं जो किसी-न-किसी रूप में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और इच्छाओं की तृप्ति करते हैं। अर्थशास्त्र ने मूल्य का प्रयोग दो अर्थों में किया है : व्यवहार (उपयोग) के अर्थ में और विनिमय के अर्थ में । व्यवहार के अर्थ में मूल्य वस्तु की उस समता को व्यक्त करता है जो मानव-आवश्यकताओं और इच्छाओं को सन्तोष देने में सहायक है । विनिमय के अर्थ में यह एक वस्तु का दूसरी वस्तु से आदान-प्रदान का सूचक है जो वर्तमान युग में धन के रूप में किया जाता है, जिसे वस्तु की कीमत या मूल्य कहते हैं। मूल का अर्थशास्त्रीय अर्थ सीमित है । वह जैव आवश्यकताओं के लिए साधन मात्र है । अपने सीमित अर्थ में प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि, सुरा का भी मूल्य है क्योंकि यह पीनेवाले को तृप्ति देती है । मूल्य के विनिमय के रूपक को भी नीतिशास्त्र में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह वस्तुओं का परिमाणात्मक मूल्यांकन करता है । सुखवादियों की नैतिक गणना ऐसी ही भ्रान्ति पर आधारित है । नैतिकता गुणात्मक मूल्यांकन को स्वीकार करती है, न कि परिमाणात्मक ।
मूल्य के दो रूप-आर्थिक और नैतिक मूल्य का भेद प्राभ्यन्तरिक मूल्य
२८० / नीतिशास्त्र
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