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चेतना ही समझ सकती है । चेतना के क्रम विकास की स्थिति ही मूल्यों के विभिन्न स्तरों की सूचक है । जिसे हम विभिन्न जातियों और व्यक्तियों के मूल्यों का संघर्ष अथवा एक ही व्यक्ति के प्रान्तरिक जगत् के मूल्यों का संघर्ष कहते हैं वह बतलाता है कि अपूर्ण विकास एवं सम्यक् ज्ञान का प्रभाव ही इस संघर्ष के मूल में है । विशिष्ट व्यक्तित्व, परिस्थिति तथा श्रावश्यकता मूल के विभिन्न स्वरूपों को हमारे सम्मुख रखती है । मूल्यों के सापेक्ष रूप तथा उच्च स्थिति को प्राप्त होती हुई क्रमिक श्रृंखला एवं गुणात्मक भेद बतलाता है कि मूल्य साधारण श्रावश्यकता से लेकर सर्वोच्च आवश्यकता को समझाता है । मूल्यों की एक ऊपर को उठती हुई श्रेणी है जिसका कि व्यक्ति अपने विकास के क्रम में अनुसरण करता है | मनुष्य अपनी अविकसित अवस्था में मूल्यों की निम्नतर स्थिति में होता है । वह जीवित रहने की इच्छा को इतना अधिक मूल्य प्रदान करता है कि जीवित रहने के लिए पशु - जीवन को भी स्वीकार कर लेता है । मूल्यों का मापदण्ड पशुजीवन की आवश्यकताओं से निर्वैयक्तिक और सार्वभौम मूल्यों की इच्छा त विस्तृत है । उदाहरणार्थ, स्वतन्त्रता और नैतिकता - सत्य, न्याय, सौन्दर्य, सेवा, समानता, बन्धुत्व के सिद्धान्त प्रादि सार्वभौम मूल्यों का आवाहन करते हैं । महान् सन्तों, दार्शनिकों और अध्यात्मवादियों ने भी यह अनुभव किया है कि ये मूल्य परम और शाश्वत हैं, इनका सदैव अस्तित्वं रहेगा और ये सबके लिए समान रूप से सत्य रहेंगे। निःसन्देह सत्य, शिव, सौन्दर्य, प्रेम, पूर्णता, स्वतन्त्रता आदि शाश्वत मूल्य हैं फिर भी इनके रूप देशकाल की आवश्यकताओं के अनुसार बदलते रहते हैं । यद्यपि कला के आदर्श और शैलियाँ बदलती रहती हैं किन्तु उनमें सौन्दर्य की ही शाश्वत खोज मिलती है ।
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आज के युग में बहुतों के लिए धन ही सब कुछ है, वे धन को ही सर्वोच्च मूल्य प्रदान करते हैं, और कुछ के लिए सफलता संस्कृति का मापदण्ड है; किन्तु नैतिक जीवन के प्रेमियों के लिए यह याद रखना अनिवार्य है कि धन जीवन का एक अंग मात्र है और वह भी सर्वाधिक आवश्यक अंग नहीं है । इसी भाँति सफल होना संस्कृत होना नहीं है । अन्तर्बोध के प्रदेश का पालन, सेवा, त्याग, सच्चरित्रता, प्रेम, सत्यता आदि शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति धन और सफलता मे कहीं अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि मनुष्य और जो कुछ भी हो वह व्यक्ति अथवा ग्रात्मा अवश्य ही है और मानव मूल्य की पर्याप्त धारणा तब तक नहीं बनायी जा सकती जब तक कि आत्म-साक्षात्कार की धारणा का समावेश नहीं किया जाये । विभिन्न वस्तुनों, आवश्यकताओं और इच्छाओं का गुणात्मक मूल्यांकन आत्म
२८२ / नीतिशास्त्र
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