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इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्त करता है। वही कर्म उचित है जो परम आदेश के अनुरूप है। इस आदेश का ध्येय सार्वभौम है। प्रत्येक बौद्धिक प्राणी को इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। सुखवादियों के अनुसार नैतिक आदेश 'चोरी नहीं करना चाहिए' आदि का व्यक्तिगत मूल्य है। अधिकतम सुख को ध्येय माननेवाला व्यक्ति उसी आदेश को मानेगा जो उसे सुख देता है। उसके लिए नैतिक आदेश अनिवार्य या निरपेक्ष रूप ग्रहण नहीं करते । काण्ट का औचित्य का नियम सार्वभौम मानदण्ड को देता है। ऐसे वस्तुगत मानदण्ड को देता है जो वैयक्तिक इच्छाओं और विशिष्ट ध्येयों से स्वतन्त्र है।
इतिहास को बुद्धिपरतावाद की देन-काण्ट ने मुख्यत: यह समझाने का प्रयास किया कि बुद्धि ही मनुष्य का सारतत्व है। मनुष्य का संकल्प स्वतन्त्र है। वह बौद्धिक एवं प्रात्म-पारोपित नियम का पालन कर सकता है। यह नियम अनिवार्य और सार्वभौम है। मनुष्य में व्यक्तित्व (बौद्धिकता) है । मानवता अपने-आपमें साध्य है। काण्ट का ऐसा सिद्धान्त अत्यन्त निःस्पृह हो गया है, इसमें सन्देह नहीं। ऐसे सिद्धान्त की बुराइयों को देखते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि इसने उस तत्त्व को महत्त्व दिया जो मानव-जाति का सामान्य गुण है । प्रत्येक व्यक्ति बौद्धिक है और समान है । जहाँ तक उसकी योग्यताओं, भावनाओं, इच्छाओं का प्रश्न है वे उसकी अपनी निजी और वैयक्तिक हैं। बुद्धि का सार्वभौम रूप मानव-बन्धुत्व की धारणा को जन्म देता है। वह बतलाता है कि नागरिकों का परस्पर सम्बन्ध बाह्य अथवा सहकारितामात्र नहीं है; वह आन्तरिक है। बुद्धि ही प्रत्येक व्यक्ति का प्रान्तरिक सत्य है। वह बतलाती है कि स्वतन्त्र नागरिक और दास में कोई भेद नहीं है। बुद्धिपरतावादियों के लिए जब हम यह कहते हैं कि उन्होंने विश्वबन्धुत्व की धारणा को दिया तो हमारा ध्यान ईसाई धर्म की और जाता है। किन्तु बुद्धिपरतावादियों ने ईसाई विचारकों के पूर्व ही विश्वबन्धुत्व की धारणा को सक्रिय रूप में स्वीकार करके दास प्रथा के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठायी। बुद्धि के वास्तव में दो कर्म हैं। एक ओर तो वह व्यक्तियों को एक-दूसरे से युक्त करती और मिलती है और दूसरी ओर प्रत्येक को उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रदान करती है। 'प्रत्येक व्यक्ति अपने-आपमें साध्य है', इस तथ्य ने कानूनी अधिकारों के लिए उचित तर्क दिये । इंगलैण्ड में जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कानूनी और राजनीतिक सुधार हुए उसमें उपयोगितावाद का हाथ तो था ही, साथ ही वे काण्ट के सिद्धान्त से प्रभावित थे। यह कहना अनुचित
बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २३३
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