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समझता था कि भावना का दलदल भयंकर है, यदि व्यक्ति इसमें फँस गया तो उसकी मुक्ति दुर्लभ हो जायेगी । किन्तु बुद्धि को आवश्यकता से अधिक अपनाने में यह भय नहीं है । अतः उसने प्रवृत्तियों, अभ्यासों और यहाँ तक कि नैतिक भावावेशों से किए हुए कर्तव्य के अनुरूप कर्मों को शुभ नहीं कहा है । नैतिकता स्वस्थ और शान्त चिन्तन की अपेक्षा रखता है । नैतिक भावावेश में व्यक्ति कर्तव्यच्युत हो जाता है । वह भ्रम में पड़कर अपने ही अहम्, मित्याभिमान, आत्म-सन्तोष आदि को अभिव्यक्ति देता है । भावुकता, दयार्द्रता तथा सहानुभूति से प्रेरित कर्म श्लाघनीय हो सकते हैं किन्तु नैतिक नहीं । स्वाभाविक सहृदयता भी अनुचित कर्मों को जन्म देती है । माँ बच्चे को स्नेह
हृदयता के कारण बिगाड़ देती है । मानव - दुर्बलताओं को समझने के कारण ही काण्ट ने यह कहा कि कर्तव्य की प्रेरणा से किया हुआ कर्म उचित है । परिणाम, प्रवृत्ति, तत्कालीन प्रावेश, श्रात्मस्वार्थ से किये हुए कर्म नैतिक नहीं हैं । वे कर्तव्य के अनुरूप हो सकते हैं किन्तु वे कर्तव्य के लिए नहीं किये गये हैं । पूर्ण रूप से पवित्र संकल्प केवल कर्तव्य के लिए ही कर्म नहीं करता बल्कि वह शुभ के प्रेम से स्वभावत: कर्म करता है । प्रसन्न हृदय से किया हुआ कर्तव्य चरित्र के शुभत्व को प्रतिबिम्बित करता है । पवित्र संकल्प पूर्ण रूप से शुभ है और यही परम नैतिक ध्येय है । काण्ट के लिए यह कहना अनुचित है कि उसने परमार्थिक और उदार प्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से पाशविक प्रवृत्तियों की श्रेणी में रखा । वह ऐसी उच्च प्रेरणाओं से प्रेरित कर्मों को प्रोत्साहन, प्रशंसा
स्नेह के योग्य मानता है किन्तु नैतिक मूल्य से युक्त नहीं करता । ऐसा करके उसने सचमुच अपने मानव स्वभाव के गूढ़ ज्ञान का परिचय दिया । मनुष्य का स्वभाव इतना जटिल है कि वह स्वयं अपने को समझने में भ्रम में पड़ जाता है । जिन कर्मों को वह निःस्वार्थ समझता है वे केवल निःस्वार्थता का आवरण पहने होते हैं । ऐसी स्थिति में कर्तव्य का सिद्धान्त उसका मार्गदर्शक बन जाता है और उसे उस कर्म की ओर ले जाता है जो वास्तव में उचित और बुद्धि को मान्य है ।
निरपेक्ष नैतिक प्रदेश का महत्त्व - सुखवाद के अनुसार नैतिक प्रदेश सुख की प्राप्ति के लिए उपयोगी साधन हैं । ऐसे लाभप्रद नियमों का पालन करनेवाला व्यक्ति व्यावसायिक बुद्धि से काम लेता । वह चतुर और दूरदर्शी है । सुखवाद ने ऐसे नियमों के पालन करने को उचित कहा है । उचित नियम वह है जो सुखप्रद है । बुद्धिपरतावाद श्रौचित्य के सिद्धान्त को स्वार्थी
२३२ / नीतिशास्त्र
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