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अपने प्रारम्भिक रूप में नैतिक विशेषणों से युक्त नहीं थीं । धीरे-धीरे प्रकृति के मानसिक अथवा भौतिक अनिवार्य नियमों ने उन्हें जन्म दे दिया । सहजज्ञानवादियों ने प्रकृतिवाद (विशेषकर हॉब्स और ह्य ूम ) के विपरीत यह समझाना चाहा कि नैतिक विचार और नैतिक सत्य मूलगत हैं। उनके रूप को प्रकृतिवादियों की भाँति सरल करके अथवा भावनाओं का विभाजन करके ( विभिन्न भावनाओं का मिश्रित परिणाम ) नहीं समझा सकते । मूलगत नैतिक सत्यों का ज्ञान उन अन्ध प्राकृतिक नियम अथवा ग्रनिवार्य नियमों द्वारा प्राप्त करना असम्भव है जो कि विवेक से संचालित नहीं हैं, बल्कि मात्र यान्त्रिक हैं । नैतिक सत्यों को प्रकृतिवादियों की भाँति ऐतिहासिक पद्धति को अपनाकर नहीं समझाया जा सकता बल्कि उनका हमें सहजज्ञान होता है । प्रत्येक व्यक्ति में सहजज्ञान की शक्ति है । इसी के द्वारा वह कर्मों के औचित्य अनौचित्य को समझता है । यह सम्भव हो सकता है कि कुछ लोगों में वह पर्याप्त मात्रा में विकसित न हो और उनको उचित रूप से निर्देशित न कर सकती हो। ऐसी स्थिति में इस शक्ति को शिक्षा और साधना द्वारा योग्य बना लेना चाहिए ।
प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद का संकल्प-स्वातन्त्र्य के बारे में भी मतभेद है । प्रकृतिवादी मनुष्य को प्रकृति का ही अंग मानते हैं और कहते हैं कि मनुष्य बाह्य जगत् एवं प्रकृति के अनिवार्य नियमों के अधीन हैं । कर्तव्य की धारणा को उन्होंने कोई विशिष्ट स्थान नहीं दिया है । उनके लिए नैतिक कर्तव्य का अर्थ कर्म करने का एक आवेगमात्र है । यह प्रावेग अपनी शक्ति के अनुरूप दूसरे आवेगों की ही श्रेणी में आता है । सहजज्ञानवादी मनुष्य को मुख्य रूप से नैतिक प्राणी मानते हैं और उसकी नैतिकता पर महत्त्व देते हुए कहते हैं कि अपने नैतिक विचारों के कारण वह कुछ हद तक प्रकृति तथा अपने कर्मों पर नियन्त्रण रख सकता है । नैतिक कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है । कर्तव्य की बौद्धिक एवं नैतिक चेतना ही उससे शुभ कर्म करवाती है, न कि प्रकृति के अन्ध नियम । अथवा जैसा कि काण्ट कहता है कि 'नैतिक चाहिए' का अर्थ यही है कि मनुष्य का संकल्प स्वतन्त्र है । वह शुभ कर्मों को उनके औचित्य के कारण कर सकता है । संक्षेप में, सहजज्ञानवाद ने यह समझाया कि मनुष्य शुभ की धारणा के अनुरूप कर्म कर सकता है और प्रकृतिवाद ने यह समझाया कि कर्मों का भावी रूप उनके भूतकालीन रूप पर निर्भर है और भावी प्रदर्श शुभ की पूर्व- कल्पना हमारे कर्मों को वहीं तक निर्धारित कर सकती है जहाँ तक कि वह स्वयं अपने से पूर्व की घटनाओं से निर्धारित है ।
२३८ / नीतिशास्त्र
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