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विधान है। इसलिए किसी के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि वह अपने हित
और सामाजिक हित में स्पष्ट भेद देखे । यह अवश्य है कि कुछ में स्वाभाविक सामाजिक प्रवत्तियों का अभाव है। पर इसके विपरीत यह कह सकते हैं कि कुछ में अपने हित की समझ भी नहीं है । जहाँ तक मनुष्य के सामान्य स्वभाव का प्रश्न है उसे हम इन अपवादों के आधार पर नहीं समझ सकते हैं ।
प्लेटो की भाँति बटलर मानव-प्रात्मा की तुलना राज्य-विधान से करता है । ऐसे विधान की धारण यह इंगित करती है कि राज्य के प्रत्येक भाग अथवा प्रत्येक नागरिक का अपना विशिष्ट कर्मक्षेत्र होता है और सब नागरिक अधिकारतः केन्द्रीय सरकार के अधीन होते हैं। जब हम विधान की धारणा का प्रयोग मनुष्य के स्वभाव पर करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तर्बोध के परम आदेश की सीमा के अन्दर ही सब प्रवृत्तियाँ और आवेग उचित रूप से अपनी तुष्टि कर सकते हैं। अन्तर्बोध वह नियामक तत्त्व है जिसे कि हमारे स्वभाव के मूर्त सक्रिय अंगों के बीच संगति स्थापित करनी होती है । संगति से क्या अभिप्राय है ? इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? संगति को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे स्वभाव के विभिन्न तत्त्वों का उपयोग निर्दिष्ट ध्येय की उन्नति करने के लिए हो, न कि उसका विरोध करने के लिए।
विधान की धारणा : सत्रिय प्रवृत्तियों का विधान-विधान की धारणा का स्पष्टीकरण करने के लिए बटलर कहता है कि मानव-स्वभाव में अनेक प्रवृत्तियाँ हैं । इनके पारस्परिक सम्बन्ध को समझाने के लिए ही वह प्लेटो की भाँति आत्मा की तुलना राज्य-विधान से करता है । मानव-स्वभाव अनेक तत्त्वों की आवयविक समग्रता है । इन आवयविक समग्रता में अनेक सक्रिय प्रवृत्तियाँ, राग और रुचियाँ हैं। कुछ कर्म की प्रेरणाएँ अन्य कर्म की प्रेरणानों पर शासन करती हैं और कुछ शासित होती हैं। मानव-स्वभाव के मुख्यत: चार तत्त्व(१) विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ, (२) परोपकार, (३) आत्मप्रेम तथा (४) अन्तर्बोध । विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ विशिष्ट विषयों की खोज करती हैं । उदाहरणार्थ, भूख का विषय भोजन है और दया का आर्त के दुःख को दूर करना । प्रात्म-प्रेम वैयक्तिक हित और परोपकार लोक-हित की चिन्ता करता है । अन्तर्बोध सर्वोच्च तत्त्व है । अथवा मनुष्य का स्वभाव अन्तबर्बोध के शासन एवं सर्वोच्च अधिकारों में एक विधान या राज्य की भाँति है। इस विधान के विभिन्न तत्वों के विशिष्ट व्यापार हैं। राज्य के सदस्य होने के कारण प्रत्येक तत्त्व का अपना वैयक्तिक अधिकार और कर्तव्य है। अतः इस
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