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पालोचना विधान की धारणा वैराग्यवाद की विरोधी-बटलर ने मानव-स्वभाव को प्लेटो की भाँति राज्यविधान के आधार पर समझाया और इस प्रकार मानवस्वभाव की स्पष्ट और मूर्त व्याख्या की। मानव-स्वभाव अनेक तत्त्वों की आवयविक पूर्णता है। सभी तत्त्व औचित्य के नियम के अधीन हैं। औचित्य का नियम या अन्तर्बोध ही सर्वोच्च नियामक सिद्धान्त है। इसके कारण ही मानव-स्वभाव में संगति और सामंजस्य है । औचित्य का नियम यह भी बतलाता है कि विभिन्न प्रवत्तियों की तप्ति के लिए नैतिक जीवन में स्थान है। अत: बटलर का अन्तर्बोध वैराग्यवाद का पोषक नहीं है। आत्म-प्रेम और अन्तर्बोध में अधिकतर ऐक्य मिलता है । आत्म-प्रेम बतलाता है कि इच्छानों की सामान्य तप्ति में ही आनन्द निर्भर है और अन्तर्बोध के अनुसार इच्छाओं की सामान्य तृप्ति उचित है। - समन्वयात्मक सिद्धान्त : धर्म का प्राधान्य--बटलर का नैतिक दर्शन उसकी समन्वयात्मक दृष्टि का परिणाम है । प्लेटो, अरस्तू और शैफ्ट्सबरी के सिद्धान्त के साथ उसने ईसाई ईश्वरज्ञान, विशुद्ध नैतिकता, स्टोइकवाद, सुखवाद, प्रचलित नैतिकता आदि का सम्मिश्रण किया। बाद में काण्ट ने विशुद्ध नैतिकता को अपनाकर यह समझाया कि विशुद्ध नैतिकता में अन्य किसी निरोध के लिए स्थान नहीं है। बटलर के सिद्धान्त में जो असंगतियाँ मिलती हैं उनका कारण उसकी समन्वयात्मक दृष्टि है। किन्तु इस समन्वयात्मक प्रयास से भी अधिक स्पष्ट जो हमें मूलतः उसके दर्शन में मिलता है वह उसके पादरी के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है। उसके दर्शन का गूढ़ और व्यापक अध्ययन हमको प्रकृतिगत और प्रेरणा द्वारा अजित धर्म की ओर ले जाता है। वह हमें ईसाई धर्म के ईश्वरज्ञान के क्षेत्र में पहुंचा देता है। ऐसी स्थिति में हमें अन्तर्बोध को एक दूसरे अर्थ में समझना पड़ेगा। अन्तर्बोध उस निर्देशक की भाँति है जो सर्वसाधारण के सुख की ओर ले जाता है, जिस सुख में दयालु परमात्मा ने हमारे सुख को भी सम्मिलित किया है । सद्गुण और आनन्द के बाह्य विरोध को दूर करने के लिए वह अन्य अठारहवीं शताब्दी के सहजज्ञानवादियों की भाँति ईश्वरज्ञान सम्बन्धी तर्क देता है। वह यह मानता है कि वर्तमान जीवन भविष्य जीवन के लिए एक साधनमात्र है और इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इस जीवन में भावी संरक्षण
और सुख के लिए एक आवश्यक गुण के रूप में सद्गुण और धर्मनिष्ठ बुद्धि की उन्नति करें।
२६० / नीतिशास्त्र
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